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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

जीमूतवाहन मलयवती को लेकर अपने पिता के आश्रम में आ रहे। मलय पर्वत की तलहटी में समुद्र था। एक दिन वहाँ मित्रावसु के साथ जीमूतवाहन टहलने गये तो बातों ही बातों में कहने लगे, "मित्र, यहाँ सिद्धाश्रम में सब सुख सकूं।”

बातें करते-करते वे पहाड़ पर चढ़ने लगे। कुछ दूरी पर पहाड़ जैसी सफेद वस्तु देखकर जीमूतवाहन ने कहा, "मित्र, यह क्या है?”

मित्रावसु ने कहा, "यह नागों की हड्डियाँ हैं। यहाँ गरुड़ आकर नित्य एक नाग को खाता है-इसीसे उनकी हड़ियों का इतना ढेर एकत्र हो गया है। गरुड़ खाता तो एक ही नाग को था, पर उसके लिए समुद्र में इतनी उथल-पुथल मचती

थी कि बहुतेरे नाग मर जाते! इससे नागराज वासुकी को आशंका हो गयी कि ऐसे तो शीघ्र ही नाग-कुल का विनाश हो जाएगा। अब उन्होंने यह व्यवस्था कर दी है कि प्रतिदिन एक नाग ठीक समय पर उसके भोजन को भेज देते हैं। यह

जीमूतवाहन यह समाचार सुनकर बहुत दु:खी हुआ और मित्रावसु के चले जाने पर भी वह वहीं बैठकर नागों के दु:ख की चिन्ता करने लगा। इसी समय किसी स्त्री के रोने का शब्द उसने सुना। वह कह रही थी, "शंखचूड़, आज तुम्हारी बारी है। अपनी आँखों से तुम्हारा वध मैं कैसे देखूंगी!”

जीमूतवाहन ने निकट जाकर देखा, एक नाग आगे-आगे चल रहा है। उसके पीछे उसकी वृद्धा माता विलाप करती जा रही है। एक दास दो लाल वस्त्र लिये साथ चल रहा है और कह रहा है, "शंखचूड़! लो वध का चिन्ह यह लाल वस्त्र ओढ़ लो और इस चट्टान पर बैठकर गरुड़ की प्रतीक्षा करो! परन्तु तुम्हारी माता तो पुत्र-शोक से अधीर हो रही है।”

दास वह वस्त्र उसे देकर चला गया। गरुड़ के आने का समय हो गया था। शंखचूड़ की माता पछाड़ खाने और रोने लगी। जीमूतवाहन का हृदय करुणा से भर गया। उसने आगे बढ़कर कहा, "माता, शोक मत करो! मैं तुम्हारे पुत्र के बदले अपना शरीर अर्पण करूंगा। लाओ, यह लाल वस्त्र मुझे दे दो!”

परन्तु शंखचूड़ और उसकी माता इस बात पर राजी नहीं हुए और वे जीमूतवाहन को धन्यवाद दे देव-प्रणाम करने मन्दिर में चले। इसी बीच मलयवती की माता ने कचुकी के द्वारा जीमूतवाहन के लिए एक जोड़ा लाल मांगलिक वस्त्र भेजा था। कंचुकी यह सुनकर कि जीमूतवाहन समुद्र तट पर घूमने गये हैं, यहीं वह वस्त्र लेकर आ गया। वस्त्र लेकर जीमूतवाहन ने कंचुकी को विदा किया और वस्त्र अपनी देह पर लपेटकर उस शिला पर जा बैठा। इसी समय बिजली की भाँति उतरकर गरुड़ ने जीमूतवाहन को पंजे में उठा लिया और मलय पर्वत की ऊँची चोटी पर ले जाकर उसे खाना आरम्भ किया।

उधर विश्वावसु के प्रतिहार जीमूतवाहन को ढूंढ़ते इधर आ पहुँचे। उन्हें चिन्ता हुई कि वह समुद्र-तट से अभी तक क्यों नहीं लौटे। अमंगल की आशंका से वृद्ध माता-पिता का हृदय काँप उठा। इसी समय रक्त और माँस से लिपटी जीमूतवाहन की चूड़ामणि वहाँ गिरी। उसे देख जीमूतवाहन की माता रोने लगी, पर प्रतिहार ने कहा, ‘यह गरुड़ के भोजन का समय है! जान पड़ता है जो नाग  आज उनके भोजन के निमित गया है, यह उसके सिर की मणि है।”

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