अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
शंखचूड़ जब उस शिला के निकट आया तब तक तो गरुड़ जीमूतवाहन को लेकर मलय की ऊँची चोटी पर जा पहुँचा था। शंखचूड़ रोता हुआ उधर आ पहुँचा और उसने कहा, "जीमूतवाहन ने मेरे बदले गरुड़ को अपना शरीर दे दिया।” यह सुनकर सब लोग हाहाकार करने लगे और रोते-कलपते मलय-शिखर की ओर दौड़ चले, जहाँ गरुड़ जीमूतवाहन को खा रहा था।
गरुड़ जीमूतवाहन के आधे शरीर को खा चुका था। जीमूतवाहन कह रहा था, "गरुड़! खाओ और खाओ! तृप्त होकर भोजन करो! अभी मेरे शरीर में मांस है। तुम भूखे हो!”
गरुड़ को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे, "ऐसा तो कभी नहीं हुआ, जबकि मैंने इतने नाग खाये। न यह रोता-चीखता है, न दर्द से तड़पता है। उल्टे आनन्दित हो रहा है।”
उन्होंने कहा, "महात्मा, तू कौन है? तेरे जैसा धैर्यवान पुरुष मैंने नहीं देखा।”
इसी समय दौड़ते हुए आकर शंखचूड़ ने कहा, "ये नाग नहीं हैं। नाग मैं हूँ। इन्हें छोड़ दो। सर्वनाश हो गया। मुझे खाओ गरुड़! यह तो विद्याधर जीमूतवाहन है।"
जीमूतवाहन ने कातर होकर कहा, ‘तुम क्यों आये शंखचूड़? क्यों मेरी इच्छापूर्ति में बाधा दी?”
गरुड़ ने शंखचूड़ की बात सुनकर कहा, "यह तो बड़ा अनर्थ हो गया! क्या विद्याधर जीमूतवाहन ने विपत्ति में पड़े नाग की रक्षा के लिए अपना शरीर दान कर दिया है?”
इसी समय जीमूतवाहन के माता-पिता गिरते-पड़ते आ पहुँचे। उन्हें देखकर जीमूतवाहन ने कहा, "शंखचूड़, मेरा शरीर अपने दुपट्टे से ढक दो, क्योंकि माता-पिता देखेंगे तो प्राण त्याग देंगे।”
जीमूतवाहन के माता-पिता मलयवती के साथ वहीं पहुँचकर विलाप करने लगे। पर जीमूतवाहन को जीवित देखकर उन्हें कुछ धैर्य हुआ। गरुड़ ने कहा, "इस महात्मा का त्याग तो महान है! मैंने आज से जीव-हिंसा त्याग दी।” परन्तु इसी समय गरुड़ का वचन सुन, जीमूतवाहन के मुँह पर मुस्कान आयी और प्राण निकल गये।
सब लोग विलाप करने लगे। इसपर गरुड़ ने कहा, "मैं स्वर्ग से अमृत
लाकर जीमूतवाहन तथा अन्य सब नागों को अभी जीवित करता हूँ।” यह कहकर वे आकाश में उड़ गये।
इधर सब लोग मृत जीमूतवाहन के मृत शरीर के दाह का प्रबन्ध करने लगे। मलयवती ने आकाश की ओर मुँह करके रोते हुए कहा, "देवी गौरी तुमने तो वर दिया था कि विद्याधर चक्रवर्ती राजा मेरे पति होंगे! यह क्या हुआ?”
इसी समय गरुड़ ने आकाश से अमृत की वर्षा कर दी। जीमूतवाहन फिर ज्यों-के-त्यों होकर उठ बैठा। सब नाग भी जीवित हो, जीभ से अमृत चाटते हुए पहाड़ी से उतरने लगे। देवी ने जीमूतवाहन को विद्याधर चक्रवर्ती का पद प्रदान किया।
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