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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

घर में घुसते ही पहले तो नवाब-बेमुल्क ने यह ख्याल किया था कि शायद भीतर स्वयं सेवा दरकार है, इसलिए एक हाथ उनकी नब्ज पर रखा था और दूसरे से अपना कोट उतार रहे थे। लेकिन रंग-ढंग देखकर उस कोट को आधा पहने रहे, बोले नहीं। होंठ काटते हुए बाहर आये और गरजते हुए वृद्धा को लक्ष्य करके बोले, "तुम लोगों में से एकआध खत्म हो तो मेरी जान का वबाल टले। बाहर से थका-मान्दा, भूखा-प्यासा घर में आता हूँ, तो आग ही लगी दिखती है।”

वृद्धा चुपचाप पड़ी रही। उसकी तबीयत भी अच्छी नहीं थी और वह बहू-बेटे से बहुत डरती भी थी। परन्तु बालिका ने आँखें डबडबाकर कहा, "भैया, घर में घी नहीं था।”

भीतर से गरजती हुई मलिकाइन निकली और बालिका को घुड़ककर कहा, "घर में कुछ है थोड़े ही! घी नहीं था, तो मुझसे क्यों नहीं कहा ? यह सब बहानेबाजी है, असलियत मैं जानती हूँ।”

वृद्धा अब भी चुप थी। पुत्र से माँ की यह चुप्पी सही नहीं गयी। उसने कड़ककर कहा, "मैं जो बक रहा हूँ, वह भी सुना? मैं कहता हूँ कि यह रोज़ की हाय-हाय मुझसे बर्दाश्त नहीं होती!”

आखिर बुढ़िया की जुबान खुली, उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। उसने काँपते स्वर में कहा, "बेटे, तुम जवान हो गये, घर-बार के हो गये। यह बुढ़िया मैया और कुछ दिनों की मेहमान है। तुम्हें मुनासिब है कि उसे मनमाने सांस लेने दो। तुमने रुपया-पैसा और खर्च-पानी की ज़िम्मेदारी तो अपनी बहू के सुपुर्द

कर रखी है, मैं भला कर भी क्या सकती हूँ? गृहस्थी में ऐसा हो ही जाता है। आखिर बहू अपनी ही तो है, कोई मेहमान तो नहीं!”

सुयोग्य पुत्र ने तिनककर कहा, "तुम्हारे हाथ खर्चा देकर क्या बण्टाधार करूं ? रूपया क्या तुम्हारे हाथ में ठहरता है? रुपये को रुपये थोड़े ही समझती हो !"

वृद्धा ने उसी धीमे स्वर में कहा, "अच्छी बात है। अब तुम्हें सुघड़ बहू मिल गयी है; परन्तु यह घर इसी बुढ़िया के धूल-भरे हाथों से बना है। तुम्हारे पिता सिर्फ साठ रुपये लाते थे, तब भी घर में सब कुछ था। मकान भी घर का था, पड़ोस के दस-पाँच गरीब-मोहताज भी पल जाते थे। तुम सवा सौ रुपये कमाते हो। उन्हें मरे अभी सिर्फ तीन साल पूरे ही हुए हैं। तुमने मकान भी बेच दिया और तनख्वाह में तुम्हारा पूरा पड़ता नहीं! एक-एक करके तमाम जेवर और फिर बर्तन तक बेचने की नीयत आ रही है। अच्छा है, तुम मालिक हो, जो जी चाहे करो!”

उसका गला भर आया और उसे अपने मृत पति की याद आ गयी। हृदय में यह भावना पैदा हुई कि आज उसके इस असहाय जीवन में उसके मरने-जीने की पूछने वाला भी कोई नहीं है। बाबू साहब कुछ बोले नहीं, वह पूरियाँ लाने बाज़ार चले गये। कुछ देर बाद बहू, पति के साथ एक ही थाल में पूरियाँ खा, हँस-हँसकर बोल रही थी। पतिदेव गर्व से प्रसन्न थे और हँसी में योग दे रहे थे।

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