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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

 

तेरह वर्ष बाद

आम कहावत है कि दूसरी पत्नी पति को अधिक प्यारी होती है। कदाचित् इसलिए कि उसमें उल्लास और वेदना एक ही लक्ष्य-बिन्दु पर संघात खाती हैं। पति की गदहपचीसी रफूचक्कर हो जाती है। जीवन की एक असाधारण ठोकर उसे कल्पना, स्वप्न और बाहरी रंगों की दुनिया से उठाकर भीतरी जगत के सत्यलोक में पहुँचा देती है। वह पत्नी को प्रेयसी समझने की बेवकूफी शायद फिर नहीं कर सकता। जीवन-संगिनी का सच्चा अर्थ टीका और भाष्य-सहित उसकी समझ में आ जाता है। खटपट, मान, व्याजकोप, ऊधम और तमाम चंचल वृत्तियों के उत्तरदायित्वपूर्ण हो जाता है। परन्तु संगीत में एकसाथ मिलकर बजने वाले विविध वाद्य जब तक सम पर आकर संघात नहीं खाते, तब तक संगीत का समा नहीं बन्धता। सितार और सारंगी, तबला और हारमोनियम, सबके ठाठ जुदा तो हैं, पर उन्हें स्वर-लहरी और ताल के साथ विवश होकर मिलकर ही चलना पड़ेगा, तभी तो रसोदय होगा! ठीक उसी प्रकार दाम्पत्य में रसोदय तो तभी होता है, जब पति-पत्नी जीवन की प्रत्येक सूक्ष्म और स्थूल क्रियाओं में एकीभूत हों, प्रत्येक सम पर दोनों अभिन्न हो जायें-सर से भी और ताल से भी !

उदय और अमला पति-पत्नी थे। जीवन की संगीत-लहरी, दोनों की हृदय-वीणा के तारों को प्रकम्पित करती थी, परन्तु सम पर आकर दोनों बेसुरे हो जाते थे। ताल-सुर मेल नहीं खाते थे। इससे, सब कुछ ठीक होने पर भी, उस छोटे-से दाम्पत्य-संगीत में रसोदय नहीं हो पाता था, क्यों? सो कहता हूँ। उदय की आयु

32 साल की थी और अमला की 18 वर्ष। अमला से उदय का ब्याह हुए केवल डेढ़ वर्ष बीता था। अमला उदय की दूसरी पत्नी थी।

28 साल की अवस्था में उदय की प्रथम पत्नी का अकस्मात् देहान्त हुआ। प्रेमोन्माद की मूर्चिछवस्था में ही जैसे किसीने उसका सब कुछ अपहरण कर लिया हो। पत्नी की मृत्यु के बाद तुरन्त ही वह उन्माद उतर आया, और फिर उसने अपने संसार की छिन्न-भिन्न, दुर्गम और असह्य पाया। अकस्मात् और असमय की मनोवेदना उसका अदीर्घदर्श जीवन न सह सका, वह वेदना से विकल हो हाहाकार करने लगा। परन्तु जगत् में अन्धकार हो या उजाला, उसमें जितनी भी चीजें हैं, वे तो रहती ही हैं। अमला भी जगत् में थी, वह अदृष्ट-बल से उदय से आ टकरायी। और जब दोनों पति-पत्नी हुए, तो हठात् जीवन की सारी ही विचारधारा बदल गयी। वह भी केवल उदय ही की नहीं, अमला की भी।

अमला सोचती थी, पति एक प्रतिमा है, उसमें बहुत-से रंग भरे हुए हैं। वह एक झूला है; अमला जब उसे प्राप्त करेगी, वह उसके सहारे लटक जायेगी। अपनी यौवन-भरी ठोकर के आघात से पैंग ले-ले झूलेगी। आशा के हरे-भरे सावन में प्रेम की रिमझिम वर्ष होगी, वह झूलेगी, गाएगी, हँसेगी और विहार करेगी। वह एक बार अपने यौवन, जीवन और स्त्रीत्व को पति के अर्पण करेगी और वह उसे अपने पौरुष, दर्प, प्रेम और आत्मार्पण में लीन करके उसके नारीत्व को सार्थक करेगा।

ये सब बातें अमला ठीक इसी भाँति सोचती हो, सो नहीं। ये तो बड़ी गहरी बातें हैं। अमला तो जैसे जीवन-पथ पर उछलती चलती थी; वह तो इस सब बातों को ऊपर ही ऊपर सोचती थी। जैसे भूखा आदमी भूख तो अनुभव करता है, पर उसके शरीर में जो उद्वेग पैदा होता है, जिसके कारण भूख लगती है, उसे नहीं समझता, उसी तरह अमला अपने मन की उस उमंग को तो समझती थी, जो उसके यौवन के प्रभात में पति के स्मरण से तरंगित होती थी, परन्तु उसके मूल कारण को नहीं।

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