अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
विवाह के बाद अमला जब ससुराल आयी, तो उसे ऐसा मालूम हुआ कि जिस वस्तु के स्मरण से उसके मन में इतनी उमंगें उठती थीं, वह कुछ उतनी प्रिय, आकर्षक और उसके उतना निकट नहीं है, जितना उसे होना चाहिए था। वह क्षण-भर ही में उस अपरिचित घर में अपने की कुछ अपरिचित-सी देखने लगी। पति को देखकर वह कुछ सहम-सी गयी। उसने देखा, वे कुछ उल्लासित नहीं हैं। अमला की चन्चलता और उमंग का उद्रेक करने की उनकी कछ भी चेष्टा नहीं है। उनकी आँखों में प्यार की वह छलछलाती चमक नहीं, उनमें एक रूखी विचारधारा-सी, एक विस्मृति-सी है। जैसे अमला को हिफाजत से अपने घर में धरकर वह कुछ निश्चिन्त-से हो गये हैं। रह-रहकर अमला के मन में यह आता था कि वह उसके पति नहीं हैं। पति का नाम मन में उदय होते ही जो रोमांचकारी परिवर्तन उसके शरीर में होता था, वह उन्हें देखकर नहीं होता।
घर में और भी औरतें थी। दो ननदें थीं-एक विधवा, एक कुंआरी। एक जेठानी थी, एक सास। इनके सिवा कुछ दिन तो पास-पड़ोसिनों का तांता बन्धा रहा। उन सबने बारीक नज़र से अमला को देखा, जैसे कोई भूली चीज़ पहचानी जा रही हो-चोरी के माल की शिनाख्त हो रही हो। अमला को यह सब कुछ बहुत बुरा लगा। उसे देख-देखकर जी औरतें चुपचाप संकेत का एकाध वाक्य कहती थीं, पास-पड़ोसिनें उसकी सास को जिन शब्दों में बधाई देती थीं, उन सबसे तो खीझकर अमला रोने लगी। उसने सोचा-जैसे मैं मोल खरीदा बर्तन हूँ, हर कोई ठोक-बजाकर देखता है कि ठीक है या नहीं। मगर इस अप्रिय वातावरण में एक प्रिय वस्तु भी थी, उसकी कुंआरी छोटी ननद कुन्द। वही सबसे पहले पालकी में घुस बैठी थी। वही अमला का घूंघट हटाकर हँसी थी। वही उसका आचल पकड़ घर में खींच लायी थी। वही दिन-भर अमला के पास रहकर पल-पल में उसे खाने-पीने, सोने-बैठने को पूछ रही थी। वह एक प्यारी-सी तितली थी। अमला ने देखा, जैसे वह कुछ उसी का ज़रा गोरा एक संस्करण है। अभी दो दिन पहले पिता के घर में अमला ऐसी ही तो थी। जो हो, अमला की सबसे प्रथम घनिष्ठता कुन्द से हुई। कुन्द का आसरा लेकर अमला उस घर में रहने लगी। धीरे-धीरे सब कुछ सात्म्य हो गया। सब कुछ सम हो गया। अमला ने सास की सृजन-मूर्ति को समझ लिया, पति को समझ लिया, पति के सौजन्य को भी जान लिया। पति-पत्नी आशातीत ढंग से झटपट ही पुराने होने लगे। बहुत कम आते। अमला ने पति के शुद्ध, गम्भीर प्रेम को पहचान लिया। पति को देखकर लाज से सिकुड़ना जल्दी ही समाप्त हो गया। हास-विनोद का अध्याय बहुत कम पढ़ा गया। वह जैसे कुछ महीनों में ही गृहिणी बन गयी। अब वह पति की देखते ही उनकी आवश्यकताओं का ध्यान करने लगी। वह दिन-भर खटपट में लगी रहती। बातचीत जब भी दोनों की होती, किसी न किसी कार्यवश।
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