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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

 

हाथापाई

नीरोज का जल्सा था। बदली के दिन थे। लखनऊ के भांड बुलाये गये थे और वे अपना करतब दिखाकर बादशाह को खुश कर रहे थे। जहाँगीर की बादशाहत रसरंग की बादशाहत थी। शराब और नूर उसकी आँखों के आगे थे। बादशाह अपनी अधखुली आँखों से नूर को देख-देखकर मसनद पर लुढ़क रहे थे। दरवाजे पर चिलमन पड़ी थी, चिलमन के बाहर दीवानखाने में भांड धमा-चौकड़ी मचा रहे थे। चिलमन के भीतर नूरजहाँ के पास पड़े-पड़े जहाँगीर कभी शराब के प्याले का, कभी भांडों का रस लूट रहा था, कभी नूर की ला-मिसाल सुन्दरता का रस ले लेता था। इतने बड़े साम्राज्य का भार इस समय उसे विचलित नहीं कर रहा था। वह भूल गया था कि मैं प्रतापी सम्राट् हूँ, मेरे मस्तक पर करोड़ों प्रजा का शासन-भार है, वह एक आनन्दी, मस्ती पर उतारू एक भौरे की भाँति नूरजहाँरूपी कमल पर चुपचाप पड़ा था। भांडों की नकलें जारी थीं। उसकी तरफ बादशाह सलामत का कुछ ज़्यादा ध्यान न था, परन्तु कभी-कभी वह उनकी चातुरी देख हँस पड़ता था। नूरजहाँ के साथ छेड़खानी भी जारी थी। भांडों की एक चुटीली नकल पर हँसकर उसने नूरजहाँ की पीठ पर थपकी देकर कहा-

"एक प्याला और दो नूर!”

"बस अब नहीं, नौ प्याले हो चुके।”

"हरगिज नहीं, अपने इन हाथों से दो।”

"हरगिज नहीं, जहाँपनाह ! हरगिज नहीं।”

"दो नूर, मजा किरकिरा मत करो, एक प्याला, सिर्फ एक!”

"जहाँपनाह वादा कर चुके हैं, याद है?”

"याद है मगर सिर्फ एक!”

"बादशाह की अपने वादे का पक्का होना चाहिए।”

"अच्छा नूर, एक प्याला दे दो! आह, जिद न करो, दे दी!”

"मैं नहीं दूँगी, नहीं दूँगी, जहाँपनाह!"

"आह, जिद न करो, दे दो!”

"नहीं, नहीं, नहीं!"

"खुदा की कसम, मैं एक प्याला शराब और पीऊँगा!”

"मैं अब आपको एक कतरा भी शराब का नहीं दूँगी!”

"मैं पीऊँगा नूर!”

"हरगिज नहीं!”

"मैं हुक्म देता हूँ!”

"मैं उसे मानने से इन्कार करती हूँ!”

"मैं जहाँगीर हूँ, शहनशाह अकबर का बेटा!”

"मैं नूरजहाँ हूँ, शहनशाह जहाँगीर की मलिका!”

"अहा, दे दो! इतना मत तरसाओ, खुदा के लिए एक प्याला।”

"यह नहीं हो सकता। आप वादा कर चुके हैं कि दिन-रात में नौ प्यालों से ज़्यादा आप न पीयेंगे। नौवाँ प्याला आप पी चुके हैं।”

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