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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

जहाँगीर को गुस्सा आ गया। उसने तैश में आकर आँखें तरेरकर नूरजहाँ की ओर देखा। नूरजहाँ संगमरमर की मूर्ति-सी स्थिर खड़ी रही, सुराही और प्याला उसके पास ही हाथी-दाँत की चौकी पर थे।

"दो नूर!”

"नहीं दूँगी!”

"दो!”

"नहीं!”

"मैं पीऊँगा, मनमानी पीऊँगा!”

"आप एक कतरा भी नहीं पी सकते!”

बादशाह मसनद से उठे, जैसे सांप फन उठाता है। उन्होंने बगल में धरे रेशमी तकियों को इधर-उधर फेंक दिया, उनकी आँखें सुख हो गयीं। उन्होंने प्याले की ओर हाथ बढ़ाया।

नूरजहाँ ने बादशाह को मसनद पर धकेल दिया। उसने दृढ़ स्वर में कहा, "जहाँपनाह क्या मेरे साथ जीरो-जुल्म करने पर आमादा हैं?”

"हट जाओ नूर, खून हो जायेगा, मुझे मत रोको!”

"तब खून कीजिये जहाँपनाह ! मेरे जीते-जी आप प्याला नहीं पी सकते!”

"खुदा की कसम, हट जाओ!”

"दोनों असाधारण व्यक्ति गुंथ गये, हाथापाई होने लगी। नूरजहाँ में काफी ताकत थी। उसने बादशाह को पटक दिया, परन्तु बादशाह चीते की भाँति फुर्ती से नूरजहाँ को उलटकर शराब की सुराही की ओर बढ़े।

बाहर खवास-बान्दी, ख्वाजा-सरा और भांड सब सन्नाटे में आये। क्या करना चाहिए, यह समझ में नहीं आया। बादशाह-बेगम की कुश्ती दुनिया की निराली बात थी। एकाएक भांडों ने गुत्थम-गुत्था शुरू कर दिया। सब एक-दूसरे से जुट गये। लगे धौल-धप्पा करने, चिल्लाने और एक-दूसरे को उठाकर पटकने।

बाहर शोर सुनकर बादशाह-बेगम लड़ना भूल गये। बादशाह चिक उठाकर बाहर आये। भांडों से तूफ़ान-बदतमीजी का कारण पूछा। उनकी आँखें लाल अंगारा हो रही थीं और हाथ तलवार की मूठ पर था। नूरजहाँ भी बाहर निकल आयी थी, वह भी भांडों की उस बेअदबी से सिंहनी की तरह कुद्ध थी। भांडों ने बादशाह को गुस्से में देखा, तो कदमों में लेट गये। उन्होंने दस्तबस्ता अर्ज की, "हुजूर, जहाँपनाह और मलिका मुअज्जमा की लड़ाई रोकने की यही तरकीब समझ में आयी। गुलामों से इसीलिए यह गुस्ताखी हुई।”

यह सुनकर नूरजहाँ को हँसी आ गयी। बादशाह भी हँस दिये। भांडों को इनाम देकर विदा किया गया। नूरजहाँ महल में चली गयी।

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