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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

नूरजहाँ ने बादशाह से मिलना-बोलना बिलकुल बन्द कर दिया। उसकी नाराज़गी की चर्चा तमाम महलों में फैल गयी। बादशाह ने बहुत मिन्नतें कीं, पुर्जे भेजे, तोहफे नज़र किये, वह सब उसने वापस कर दिये। हर तरह खुशामद की गयी। परन्तु नूरजहाँ का दिल नहीं पसीजा। वह असल संगमरमर की प्रतिमा थी। वह परम तेजस्विनी स्त्री थी। बादशाह ने दरबार के बड़े-बड़े मुशीरों से सलाह ली परन्तु निष्फल। जहाँगीर एक हदयवान पुरुष-रत्न था। वह नूरजहाँ के प्रेम का दीवाना था। उसे उसके बिना सारा मुगल साम्राज्य फीका दीख रहा था। उसकी आत्मा शून्य का अनुभव कर रही थी। उसे रात-दिन चैन न था, परन्तु नूरजहाँ थी कि उसपर प्रार्थनाओं का, मिन्नतों का, खुशामदों का, कुछ भी असर नहीं होता था।

एक मुँहलगी बान्दी नूरजहाँ की कृपापात्री थी, उसे बादशाह ने कहा : "अरी तू मलिका को राजी कर वे चाहती क्या हैं?”

बान्दी ने भौंह मटकाकर कहा- "पनाहें-आलम, मलिका बहुत नाराज हैं। वह कहती हैं कि जहाँपनाह उनके कदमों में गिरकर माफी माँगें, तो वह माफ कर सकती हैं!”

"वाह, यह कैसे हो सकता है? मैं तमाम हिन्दुस्तान का बादशाह जहाँगीर हूं!”

"यही तो मुश्किल है जहाँपनाह, मलिका कहती हैं कि मैं दीनो-दुनिया के मालिक शहनशाह जहाँगीर की मलिका हूँ।”

"अरी बदबख्त, तू कुछ रास्ता निकाल।”

"जहाँपनाह जाने दें, रंगमहल में एक से एक बढ़कर...।”

“चुप गुस्ताख, जा मलिका को किसी तरह राजी कर!”

"एक शर्त है हुजूर!”

"कौन सी शर्त?'

"मेरी बतायी तरकीब हुजूर काम में लायेंगे?”

"अगर तूने कहा कि मैं मलिका के पैरों पर सिर रख दूँ?”

"लाहौलवला-कुव्वत, जहाँपनाह, बान्दी कुछ और ही तदबीर करेगी जिससे सांप मरे न लाठी टूटे!'

"जा मर!”

बान्दी हँसती हुई कमर लचकाती, बल खाती चली गयी। प्यारी नूरजहाँ की याद में बादशाह बड़बड़ाने लगे।

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