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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

 

वेश्या की बेटी

वह वेश्या की बेटी थी, वेश्या न थी। वेश्या क्यों नहीं थी-सुनिए! वेश्या कौन है?-जिसमें स्त्रीत्व का पूरा अभाव है। दया, ममता, सत्य, कोमलता, सहृदयता और सतीत्व-यही तो स्त्रीत्व है! वेश्या में इन चीज़ों की बिलकुल ही कमी होती है। वे उस सतीत्व को, उस अस्मत की-जिसे स्त्री अपने शरीर के टुकड़े-टुकड़ें होने पर भी आंच नहीं लगने देती, खुले आम टुकड़ों के भाव बेचती हैं। वे झूठे दम्भ, पाप और अस्मत-फरोशी की जबर्दस्त व्यापारी हैं। उन्होंने स्त्री-शरीर पाया है जरूर, पर स्त्री-हृदय नहीं, स्त्रीत्व भी नहीं!

इनमें से एक भी गुण उसमें न था। हाँ, वेश्या इन अवगुणों को गुण ही कहती है। वह अस्मत-फरोशी करके जीने की अपेक्षा फाँसी लगाकर मर जाना ज़्यादा बेहतर समझती थी। वह नरक के समान वेश्या-घर में जी रही थी, पर ज्यों-ज्यों उसकी उम्र बढ़ती जाती थी, वह घर उसके लिए एक असह्य वेदना-गृह बनता जाता था। वह बहुधा सोचा करती थी कि अब क्या होगा! वह दिन-भर पढ़ती, व्रत-उपवास करती, शुद्धाचार से भोजन बनाती और स्त्रीत्व की कोमल कल्पनाओं की मूर्ति-सी बनी बैठी रहती। इसीलिए तो हमने कहा कि वह वेश्या न थी-केवल वेशया की बेटी थी! उ

सकी माँ बड़ी घाघ थी। उसने सैकड़ों यौवन देखे, बेचे और सम्भाले थे। वह उसे ऊँचे-से-ऊँचे दामों में बेचना चाहती थी। उसने उसे पाला था, शिक्षित किया था, उसे बनाया था। उसे आशा थी कि उसे बारम्बार बेर्चेगी और मालामाल हो जाऊँगी, पर लड़की का स्वभाव और हठ देखकर वह कुछ भी न कर सकी।

वह बहुधा लड़की पर क्रुद्ध रहती। एकाध बार मार भी बैठी। पर लड़की ज्यों-ज्यों सतायी जाती, उसके भीतर सोयी हुई आत्मा जागृत् होती जाती थी।

उसने निश्चय किया कि जो बात स्त्री-जाति-मात्र के लिए अपमानजनक है, जिस बात की स्त्रियाँ मुख से निकालना, आँख से देखना भी मृत्यु से निकृष्ट समझती हैं, उसे में कैसे अपने जीवन का क्रम बना सकती हूँ?

इस वेश्या की बेटी का नाम कामिनी था। काम की सोलहों कलाएँ उसमें व्याप्त थीं। उसका लचीला शरीर, सुनहरी रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, काली-चमकीली दृष्टि और सम्पुटित होंठ असाधारण थे। अभी वह अस्फुटित, अछूती कुंद-कली के समान थी; अभी से उसका सौरभ फूट पड़ा था, और भौंरे उसके चारों तरफ उमड़ रहे थे।

उन मधु-लोभी भौंरों में एक का नाम राजकुमार था, पर वह रज्जू बाबू के नाम से प्रसिद्ध था। वह एक धनी व्यापारी का, 18 वर्ष का सुन्दर-छरहरे बदन का बेटा था। स्त्री क्या वस्तु होती है, इसका उसे ज्ञान न था, अनुभव भी न था, उसने कामिनी को ही प्रथम बार स्त्री-भाव से देखा। स्त्री क्या वस्तु होती है उसका अध्ययन भी किया। वह स्त्रीमय हो गया, कामिनीमय हो गया। कामिनी उसके नेत्रों का प्रकाश थी, वह जगत् को कामिनीमय देखता था। कामिनी उसका जीवन और प्राण थी। वही दशा कामिनी की थी। एक-एक क्षण में उसके हृदय की प्यास बढ़ती चली जा रही थी, वह उस युवक के लिए प्रतिक्षण बेचैन रहने लगी थी।

यही तो बात है, जो वेश्यावृत्ति के प्रतिकूल है। प्रेम वेश्या के लिए विष है। जिस वेश्या के हृदय में प्रेम का बीज अंकुरित हुआ-फिर वह वेश्या क्या खाक हुई? उसका वेश्या-जीवन धिक्कार के योग्य हुआ!

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