अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
नूर
सूरज डूब रहा था। पश्चिम में लाल-पीले बादलों की शोभा बहुत भली दीख रही थी। हवा ठंडी थी। आकाश में दो-चार बादल घूम रहे थे। दो दिन पहले वर्षा हुई थी, उसकी नमी अभी तक धरती और हवा में थी। अगस्त का अन्तिम सप्ताह बीत रहा था।
विद्यानाथ बाबू खिन्न भाव से बनारस-कैंट स्टेशन पर रिक्शे से उतरे। उनका मन बहुत खराब हो रहा था। उदासी के कारण उनका मुँह नीचे की ओर झुका हुआ था। उन्होंने चुपचाप तांगेवाले को पैसे दिये और हैण्डबैग हाथ में लटकाकर सीढ़ी चढ़ गाड़ी में आ बैठे। कुली ने उन्हें पुकारकर हैण्डबैग ले चलने को कहा-वह उन्होंने सुना नहीं। उन्हें टिकट खरीदना है यह भी वह भूल गये। गाड़ी प्लेटफार्म पर खड़ी थी, डब्बे में भीड़ नहीं थी। एक ओर हैण्डबैग फेंककर वह बर्थ पर उढ़क गये। बहुत-सी अशान्त करनेवाली बातें उनके मन में घूम रही थीं। उन्होंने यह भी नहीं देखा कि डब्बे में अन्धकार था, अत: इन्होंने यह भी नहीं देखा कि डब्बे में और कौन-कौन हैं।
इसी समय किसीने आकर खिड़की के बाहर से उनका हाथ पकड़कर कहा, "पिता जी, नमस्ते।”
आँख उघाड़कर देखा, हमीद है। होंठ सूखे हुए और सिर के बाल रूखे और बिखरे हुए। आँखें परेशान।
उन्होंने जिज्ञासा-भरी दृष्टि से हमीद को देखकर कहा, ‘‘अब इस वक्त क्यों दिक करते हो?” परन्तु हमीद के जवाब देने से पहले ही नूरुन्निसा बानू डब्बे में घुसकर
उनसे बिलकुल सटकर बैठ गयी। नूर को देखकर विद्यानाथ चौकन्ने हुए। उन्होंने डब्बे के अन्य व्यक्तियों पर एक दृष्टि डाली और हमीद की ओर देखकर कहा-
"इसका क्या मतलब?”
हमीद ने कहा, "आप चुपचाप चल दिये, मुझसे कहा भी नहीं?”
"तो इससे क्या?"
‘‘आप जानते हैं यहाँ हम लोग आप ही के साये में थे।”
"तो फिर?”
इसी बीच नूर ने उनकी बांह पकड़कर कहा, "पिता जी, आप तो कभी नाराज नहीं होते, फिर इस वक्त इस तरह क्यों बोल रहे हैं?"
विद्यानाथ बाबू ने नूर की ओर देखा, वह एक हल्की नीली साड़ी पहने थी, माथे पर सिन्दूर का टीका था, उसकी आँखों में भय और अनुनय था।
विद्यानाथ कुछ-कुछ मतलब समझ गये। हमीद ने कहा, "नूर आपके साथ दिल्ली जा रही है पिता जी, यह उसका टिकट है!” उसने टिकट उनके आगे बढ़ाया।
विद्यानाथ की टिकट देखकर याद आयी कि उन्होंने अपना टिकट ही नहीं लिया है। उन्होंने कहा, "टिकट तो मुझे भी लेना था।”
"मैं लाता हूँ।” हमीद दौड़ चला। विद्यानाथ ने रोकने को हाथ उठाया सो उठा ही रह गया।
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