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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

नूर ने कहा, "पिता जी, आप क्या बहुत नाराज़ हैं?”

विद्यानाथ ने कहा, "लेकिन तुम क्यों पूछती हो?”

"इसलिए कि मैं आपको पनाह में हूँ। एक बेबस औरत जिसकी पनाह में हो उसकी नाराज़गी कैसे देख सकती है?” नूर ने धीमे स्वर में कहा।

विद्यानाथ ने देखा, उसकी आँखों में आँसू छलछला रहे हैं और उसके होंठ कांप रहे हैं।

"उन्होंने घबराकर कहा, "यह क्या बेवकूफी है? लेकिन-लेकिन..."

‘‘आपको तकलीफ हो तो मैं नहीं जाऊँगी। मेरा जो होगा सी हो रहेगा।”

इस बीच में हमीद टिकट लेकर आ गया। गाड़ी ने भी सीटी दी। व्यग्र भाव से विद्यानाथ ने पूछा, "नूर को कहाँ पहुँचाना होगा?”

"वह आपके पास ही रहेगी पिता जी, बाद में देखा जाएगा।”

गाड़ी चल दी। हमीद ने दोनों हाथ जोड़कर कहा, "नमस्ते पिता जी।”

और विद्यानाथ ने गद्गद कण्ठ से कहा, "जीते रहो।”

गाड़ी की गति तेज़ हुई-हमीद प्लेटफार्म पर दोनों हाथ जोड़े जड़वत् खड़ा था और विद्यानाथ खिड़की से सिर निकालकर उसे एकटक देख रहे थे। कौन कह सकता है कि ये पिता-पुत्र नहीं, और दोनों का प्रत्येक रक्त-बिन्दु परस्तर विरोधी है।

थोड़ी देर में विद्यानाथ ने नूर की ओर ध्यान दिया। उन्होंने देखा-उसकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही है। विद्यानाथ क्या कहें, क्या करें, यह निर्णय नहीं कर सके। उनसे न सान्त्वना देते बन पड़ा, न वह उस कठिनाई और खतरे को व्यक्त कर सके जिसमें वह अपने साथ नूर को ले जाकर पड़ गये थे। परन्तु उनका हृदय इस असहाय लड़की के आँसू सहन न कर सका। उन आँसुओं में बेबसी, भय, चिन्ता और न जाने क्या-क्या सम्भाव्य-असम्भाव्य था-यह विद्यानाथ के सुसंस्कृत मन से अज्ञात न रहा। हठात् उन्होंने हैण्डबैग खोलकर हिन्दी-अंग्रेज़ी की कई मैगजीनें तथा दो-तीन पुस्तकें निकालकर उसके सामने बिखेरते हुए कहा, इलस्ट्रेटेड वीकली में यह कार्टून तुमने देखा है? लेडी साहिबा कह रही हैं-"जब तुमने विवाह का प्रस्ताव किया था तब मेरे मुँह में चॉकलेट भरा था। इसीसे बोल न सकी। मेरे मौन को तुमने स्वीकृति समझ लिया। यह तुम्हारी मूर्खता है।'

इतना कहकर वीकली का वह पृष्ठ नूर के सामने फैलाकर विद्यानाथ खिलखिलाकर हँस पड़े।

नूर हँस नहीं सकी, परन्तु उसके आँसू थम गये। उसने शून्य दृष्टि वीकली पर डाली और पृष्ठों को उलटने-पलटने लगी। विद्यानाथ ने यही यथेष्ट समझा। उन्होंने अघाकर सांस ली और सीट पर पीठ का सहारा लेकर बैठ गये।

रेल दौड़ी जा रही थी।

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