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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

 

भूरी

स्टेशन पर आकर देखा-गाड़ी आने में देर थी। पुल के पास प्लेटफार्म पर छ:-सात देहाती स्त्रियाँ अपनी गांठ-पोटली लिये बैठी थीं। लगभग सभी वृद्धाएँ थीं। कुछ जवान थीं, पर उनमें और वृद्धाओं में कुछ ज़्यादा अन्तर नहीं दीख पड़ता था। उनके वस्त्र मोटे मैले और चिथड़े थे, सबके पैर नंगे थे। चेहरे और शरीर पर वेदनाओं के पहाड़ चकनाचूर हुए हैं, इसके चिह्न साफ दीख रहे थे।

प्रात:काल का समय था, परन्तु सूरज निकलते ही आग उगलने लगा था। गर्मी के दिन का प्रभाव शीत के दोपहर से कहीं अधिक गर्म था। इतनी दरिद्र-दीन-हीन होने पर भी वे सब प्रसन्न थीं, मानो वह दीनता उनमें रम गयी थी। वे हँस-हँसकहर अपने घर-द्वार की बातें कर रही थीं, और निस्संकोच होकर उस गन्दी जमीन पर बैठी थीं।

सबने सलाह करके अपनी-अपनी पोटलियाँ खोलीं। उनमें रात की बासी रोटियाँ थीं, मोटी-मोटी रोटियाँ। किसीके पास दलिया या दाल के ढंग की कोई चीज़ थी। प्रत्येक ने उन्हें खाना प्रारम्भ किया। रोटियाँ खराब हो चुकी थीं, उनमें बू आ गयी थी। सम्भव है कि वे रात की न होकर और एक दिन पहले की हों। पानी का कोई प्रबन्ध न था परन्तु वे अत्यन्त धैर्यपूर्वक उनके छोटे-छोटे टुकड़े गले से उतार रही थीं।

उन स्त्रियों में एक वृद्धा सबसे अधिक बूढ़ी थी। उसके मुँह में एक भी दाँत न था और चेहरे पर अनगिनत झुर्रियाँ थी, उसकी गांठ में साबुत रोटी न थी, रोटियों के टुकड़े थे। वे सूखकर टूट गये थे और उनका खाना अत्यन्त त्रासदायक था। वे शायद जी-चने के सूखे हुए बासी टुकड़े थे, वह वृद्धा अभागिनी उन्हें चुपचाप नीचे धकेल रही थी।

इस बूढ़ी का नाम भूरी था, वह इन सबकी गोष्ठी से अलग थी, किसी की बातचीत में सम्मिलित न थी। सभी स्त्रियाँ उसके टुकड़ों को भेद-भरी दृष्टि से देखकर मन ही मन मुस्करा रही थीं। उनकी अपेक्षा उसके टुकड़े घटिया हैं, उस मुस्कराने का यही अर्थ था। सबके पास तो गेहूँ की रोटियाँ थीं। तब उसके पास थी जी-चने के रोटी, जो उसकी दीनता की प्रकट करती थी।

सबने आँखों ही आँखों में संकेत करके वृद्धा को बनाने की सलाह कर ली। एक ने मानी कठिनाई से हँसी रोककर कहा- "भूरी, कैसी रोटी है तेरी?”

"जी-चने की है।” वृद्धा ने सहज स्वभाव से कह दिया और फिर बोली, "लोगी क्या?”

इसपर फिर सबने परस्पर दृष्टि-विनिमय किया। हँसी होंठों की कोर में दबाकर उसी मुखरा ने कहा-"हाँ, हाँ, लेंगी, ला दे।”

वृद्धा ने दो टुकड़े अच्छे-अच्छे चुनकर उसके आगे बढ़ा दिये। टुकड़ों को लेकर सबने बारी-बारी उलट-पलटकर देखा। एक ने दूसरी की पीठ में ऊँगली चुभा दी, दूसरी ने तीसरी को धकेल दिया, तीसरी ने चौथी की ओर आँख से संकेत किया, चौथी ने होंठ निकालकर मुँह बिचका दिया।

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