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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

वृद्धा की दृष्टि शायद मन्द थी, वह यह सब नहीं देख रही थीं। दो टुकड़े उन्हें देकर चुपचाप खा रही थी। सब भाँति टुकड़ों का उपहास करके फिर उसी मुखरा ने वे टुकड़े भूरी के आगे बढ़कार कहा, "ले भूरी, अपनी रोटी सम्भालकर रख ले।”

भूरी ने कहा, "क्यों, कैसी है?”

"बहुत ही अच्छी है।”

वृद्धा फिर बोली नहीं। टुकड़े लेकर चुप हो गयी। इतनी देर में वह शायद समझी कि उसके टुकड़ों का तिरस्कार किया गया। उसने अपना प्रातः भोजन खत्म करके बचे हुए टुकड़े चुपचाप अपने उसी चीथड़े में बाँध लिये।

मैंने देखा करुण रस में करुणा का उदय हुआ है, साक्षात् दरिद्रता की ककालिनी ये स्त्रियाँ सड़े हुए टुकड़े खाने पर भी दूसरों की अपने से हीन दशा पर हास्य किये बिना स्थिर न रह सकीं। भूरी जैसी कितनी स्त्रियाँ भारत में हैं, और उन स्त्रियों जैसी भी। परन्तु भूरी के प्रति उनका उपहास तो मनुष्य-स्वभाव का सच्चा स्वरूप है। वेदना की अनुभूति जब मर जाती है और प्राणी जब शून्य-मस्तक हो जाता है, तब उसकी अन्तरात्मा पतित होते-होते इतनी गिर जाती है, कि वह अपनी दीन दशा को नहीं देखता। उसे देखकर कितने लोग करुणा प्रदर्शित करते हैं, यह भी वह नहीं जानता। वह केवल औरों के छिद्र देखता है, उसपर वह हँसता है। करुण रस जब सूख जाता है, तब वह विद्रूप रूप धारण करता है।

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