अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
|
6 पाठकों को प्रिय 174 पाठक हैं |
बड़ी बेगम...
यदि मैं यह चाहूँ कि मेरी स्त्री परी-सी सुन्दर हो, वह मुझे प्राणों से बढ़कर प्यार करे तो इसमें बेजा क्या है जी? यही तो में चाहता था। वह पतिव्रता, परिश्रमी, सुशीला और मृदुभाषिणी थी-रसिक भी थी। पर प्रकृति की निष्ठुरता से उसे सौन्दर्य नहीं मिला था। प्रकृति-सौन्दर्य-निरीक्षण की कुछ-कुछ योग्यता मुझमें है। फिर क्या पत्नी-सौन्दर्य प्रकृति-सौन्दर्य से बाहर है? क्या मैं अपनी स्त्री को फूलों से सजाना न चाहता था? पर फूलों से सजने योग्य उसका मुँह होता तभी तो! मैं जानता हूँ कि मैं उसे बहुत अधिक प्यार करता था। मैं उसके बिना एक क्षण भी तो नहीं रह सकता था। मेरे मन में प्यास तो थी ही और इस सबके लिए अपराधी थे मेरे ससुर-यह मेरी पक्की धारणा थी। उन्होंने बड़ी दौड़-धूप से, यत्न से मुझे दामाद बनाया था। वे भले आदमी थे, बहुत ही भले-पर अमीर तो न थे ! जो श्वसुर अमीर नहीं, वह श्वसुर ही क्या? दामाद लोग क्या उनकी भलमनसी को लेकर चाटें! और खास कर उस हालत में जबकि बेटी सुन्दर भी नहीं! हर हालत में हमें ससुराल से बहुत-सी शिकायतें थीं।
फिर भी आखिर ससुराल ही तो थी। जब भी हम वहाँ पहुँच जाते तो स्वर्ग का-सा मजा आता था । इच्छा होती थी कि सदा ससुराल में रहना ही, तो मजा है।
एक बात हम कहेंगे कि रहे हम किस्मत के धनी। जब जो चाहा होकर रहा। एक ओझा जी ने हमें एक तावीज़ बहुत दिन हुए दिया था और कहा था, "बच्चा, यह तावीज़ वह असर रखता है कि जो चाहोगे, पाओगे!” वही हुआ।
ससुराल में सदा रहना चाहा-खट् से सिलसिला बैठ गया। वहीं नौकरी मिल गयी, वह भी ससुर साहब के दफ्तर में उन्होंकी दौड़-धूप और अफसरों की चिरौरी करने से।
पिता जी ने इस बात का विरोध कर कहा, "बेटा, रिश्तेदारी में रहना ठीक नहीं, अपने घर में नंगे-उघाड़े रहो, कमाओ-खाओ-जैसी रूखी-सूखी मिले! रिश्तेदारी में रहने से कुछ की आन जाती है!”
माता जी ने भी कहा, "मैंने ब्याह किया तो क्या इसलिए कि हमें छोड़ ससुराल में जा बसेगा?” यारों ने कहा, "हजरत, सास-घर जमाई कुत्ता-सो तुम कुत्ता बनने चले हो!”
कहिए, इन मूर्खों को, ससुराल-सुख से अनभिज्ञों को क्या कहा जाता! हमने सबकी सुनी, पर की अपने मन की। हमारी श्रीमती की राय हमसे मिलती थी। बस, फिर क्या था! एक और एक ग्यारह। एक दिन, शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में हम खिसक चले।
|