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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

नौकरी बड़ी ही बेढब थी। आधे शहर में बिजली की बत्तियाँ जलानी पड़ती थीं और समय पर बुझानी भी। रात को समय-कुसमय जागना और गली-कूचों में पागल कुत्ते की भाँति घूमना पड़ता था। वह नज़ाकत-लताफत तो इस बार पहले ही दिन से चली गयी थी। कभी-कभी तार बिगड़ जाता तो घन्टों मगज़ खपाना पड़ता था। तिसपर बाईस रुपये की तनख्वाह। आप ही कहिए, क्या किया जाए? ससुराल का वास ठहरा। कपड़े-लते ज़रा ठीक-ठाक से रहने चाहिए। सदैव रेशमी कुर्ता और गौरी बाबू की चाँदी की मूठ का बेंत तथा सोने की चेन वाली घड़ी लगाकर आता था। वह अब हमेशा को तो मिल न सकती थी। सो इस बार थी ही नहीं। जूता भी वह साढ़े तीन रुपये वाला था-जिसे दो वर्षों से घसीट रहा था। काम गन्दा और पलीत था। कपड़े एक ही दिन में गन्दे हो जाते थे। उन्हें रात को धोना पड़ता था। घर में इस प्रकार धोते-धीते चमड़े की भाँति हो गये थे। ससुराल में आधी रात को धोबी घाट लगाते बड़ी शर्म आती थी, पर चारा क्या था?

दस-पाँच दिन तो खाने-पीने का ऐसा झंझट न रहा। बेचारी सास गर्म खाना लिये बेठी रहती, खिलाकर सोती-चाहे आधी रात ही जाती। अलबत्ता नाश्ते की

इस बार शुरू ही से पतंग कट गयी थी। पान को भी कोई नहीं पूछता था। घर में कोई पान खाता ही न था। इसलिए वहाँ उसका सरंजाम ही न था। बाजार से पैसा फेंककर अब पान कौन मैंगाए! हमने भी उसकी ऐसी परवाह न की। पनवाड़ी से दोस्ती कर ली थी। उचापत बाँध ली थी, पान, सिगरेट, सोडा, लेमन, जब चाहते पाते। तनख्वाह पर हिसाब देने का वादा था। बहरहाल कोई ऐसा कष्ट न था, काम मजे में चल रहा था।

पहले महीने की तनख्वाह जी मिली, तो सास ने कहा, "पहली तनख्वाह है, इसे माँ के पास भेज दी। बेचारी खुश हो जाएगी।” तनख्वाह के रुपये माँ को भेजने पर पत्र मिला, कि "बेटे की कमाई पायी, सिर-आँखों पर लगायी, खुशी मनायी, मिठाई बंटवायी। अब क्या फिक्र है! बेटे हुए सयाने, दरिद्र गये बिराने। बेटे, अब बुड्ढे बाप को सुख मिलेगा; तुम फलो-फूलो!” पत्र पढ़कर आनन्द ही हुआ। चलो, माँ को इतना सुख तो मिला!

दूसरे मास की तनख्वाह माता को भेजने में अड़चन पड़ गयी। कुछ रुपये तो हलवाई और पनवाड़ी की उचापत में चले गये। यारों ने मिठाइयाँ और पान-सिगरेट खाये-पीये थे। फिर हमें अब दूध पीने की भी आदत हो गयी थी। जूता अब दाँत दिखाने लगा था, सो एक जूता भी लेना पड़ा। एक कोट सिलाना आवश्यक हुआ। टोपी को देखकर घिन होती थी, वह भी नयी ले ली गयी। गरज, वह दूसरे मास की तनख्वाह चार दिन में ही फुर्र हो गयी। महीने-भर के लिए जेब-खर्च कुछ न बचा। इससे मन को अशान्ति हुई। पर क्या कर सकते थे? पनवाड़ी और हलवाई की उचापत चल रही थी। उसीका बड़ा आसरा था, क्योंकि अब ससुराल में खाना नहीं मिलता था। कभी सास जी का सिर दुखता था और कभी साली के पैर में दर्द ही जाता था।

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