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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

घर से पिता ने लिखा, "बेटे, हम तुम्हारी तनख्वाह की बाट मेह की भाँति ताक रहे हैं। तुम्हें मालूम है बहू के पास न धोती है, न कपड़े। हम लोग तो नंगे-उघाड़े रह सकते हैं पर बहू को ऐसा कैसे रख सकते हैं! महीना तो बीत गया, तनख्वाह कब मिलेगी?”

उन्हें क्या मालूम था कि तनख्वाह तो खुर्द-बुर्द भी हो चुकी है। हमने चुप साधना ही ठीक समझा।

एक महीना और बीत गया। तनख्वाह आयी। मगर हलवाई और पनवाड़ी ही उसका बड़ा भाग ले गये। उनका बिल बढ़ गया था। दोस्त बढ़ गये थे, और ससुराल से पेट पूर नहीं भर पाता था। कुछ रुपये बचे, वह जेब-खर्च को रखे। अब हमें इस बात की भी परवाह न थी कि ससुराल में कुछ ज़्यादा खातिर-तवाजे हों। हम इस तथ्य को ठीक-ठीक समझ गये थे कि रोटियाँ मिलती हैं यह थोड़ा नहीं है। होटल में खाओगे, तो आठ रुपये की ठुकेगी। अब हर समय सास का मुँह चढ़ा रहता, और सदा ही घी, तेल और आटा-दाल घर में नहीं रहा है-इसका रोना रोया करती। परन्तु हमने गूंगा और बहरा बनना ही मुनासिब समझा। बेशर्मी पर भी हमें कमर कसनी पड़ी, और हम खूब मुस्तैदी से ठीक समय पर खाना खाने पहुँचने लगे, क्योंकि ऐसा अनुभव होने लगा था कि जरा भी देर हुई कि कभी सब्जी नहीं, कभी रोटी नहीं।

एक दिन देखता क्या हूँ कि पिता जी श्रीमती जी को इक्के से उतार रहे हैं। इतने दिनों बाद श्रीमती से मिलन होगा-यह देखकर तो मनमयूर नाच उठा। पर पिता जी की लाल-पीली मुख-मुद्रा देख दिल फड़कने लगा। उन्होंने हमारे प्रणाम का भी उत्तर नहीं दिया। केवल रात-भर ठहरकर सुबह चले गये। चलती बार कह गये, "हम लोग तो मज़दूरी कर खाएँगे, पर अपनी औरत को तो अपनी कमाई खिलाओ। हमने तुम्हें बड़ा किया, सो इसलिए कि औरत को बूढ़े माँ-बाप पर छोड़ दी, स्वयं कमा-कमाकर सुसर का घर भरो!”

'ससुर का घर भरने' की एक ही कही! परन्तु हम कह-सुन कुछ भी न सके। पिता जी चले गये।

हमने देखा-श्रीमती जी की इस बार वैसी आवभागत नहीं हुई, जैसी सदा होती थी। बल्कि हमने देखा कि दूसरे दिन से सास जी को कोई रोग का पुराना दौरा पड़ गया और श्रीमती जी को चौके-चूल्हे में जुट जाना पड़ा।

परन्तु इससे हमें कुछ हानि न हुई, बल्कि बेफिक्री हुई। क्योंकि अब खाने-पीने का ठीक-ठिकाना लग जायेगा, इसकी दिल-जमई हो गयी।

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