अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
दो-चार दिन तो सही-सलामत गुजर गये। पर एक दिन रात को श्रीमती जी से हमारी झड़प हो ही गयी। उन्होंने कहा, "यहाँ इतने दिन से रह रहे हो, जरा इसपर विचार तो करो!”
इस काम में भी विचार करने की कुछ गुन्जाइश है-यह तो हमने अभी सोचा न था। इसलिए एकाएक कुछ उत्तर न देकर हम सोच में पड़ गये।
श्रीमती जी ने ज़रा तेज़ होकर कहा, "क्या सोचने लगे? कुछ सुना मैंने क्या कहा? या चिकने घड़े हो गये हो?”
मैंने कहा, "सुना तो, पर मैंने तो कभी यह बात सोची ही नहीं!”
"यह भी नहीं देखा, ये लोग तुम्हारा तिरस्कार करते हैं?"
"नहीं तो !”
"मैं इनके पेट की बेटी, चार दिन में ही सब समझ गयी और तुम इतने दिन में भी नहीं समझे?"
"पर समझकर भी क्या करूं, खाना तो पड़ेगा ही।”
"क्यों, क्या अपनी कमाई नहीं खा सकते थे?”
"खा तो सकता था !’’
"तुम जानते नहीं कि मेहमान दो दिन का होता है! तुम खाने-कमाने लगे। खाओ-कमाओ!”
"बात तो ठीक कहती हो !”
"यह भी नहीं किया कि घर की खर्च भेजते। उन्होंने तुम्हें पाल-पोसकर इतना बड़ा किया, अतः वे मुझे भी खिलायेंगे? इसी बूते पर ब्याह किया था ?”
"पर कुछ बचा ही नहीं, भेजता कहाँ से?”
"क्यों नहीं बचा, कहाँ खर्च किया? रोटी तो पराये आसरे खाते रहे।”
श्रीमती की बातें तीखी और सच्ची थीं। चुभने लगीं। हमने क्रुद्ध स्वर में कहा, "चुप रहो, सुबह इस विषय में विचार करेंगे।”
उन्होंने चुप्पी साध ली। नहीं कह सकते कि वे रोने लगीं या सोने। पर हमें नींद नहीं आयी। हमने रात-भर यही सोचा कि सचमुच पराये आसरे रोटी खाते रहे !
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