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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

सुबह उठते ही हमने अपना निर्णय कर लिया। हमने श्वसुर से कहा, "हमारा इरादा अलग मकान लेकर रहने का है।” श्वसुर कुछ देर सोचकर बोले, "इसके लिए ऐसी जल्दी क्या है? यह भी घर है, यहीं रहो!”

"यह तो ठीक है पर एक दिन की बात तो है नहीं।”

"अलग रहोगे तो खर्च बढ़ेगा। अकेली लड़की रहेगी कैसे? लोग भी क्या कहेंगे ?”

"लोगों के कहने का क्या है। जैसे बनेगा गुजारा कर लेंगे।”

सास पर मुकदमा पहुँचा, उन्होंने फैसला दिया, "यहीं रहें और अपने वेतन से खर्च चलाएँ!”

यही निर्णय हो गया परन्तु अपने वेतन से खर्च चलाएँ कैसे? उसका अधिकांश तो बाबूगिरी और दोस्तों में खर्च हो जाता था, स्त्री के आ जाने से भी कुछ मद बढ़ गयी। उसमें से दस-पाँच रुपये सास जी के पल्ले पड़ने लगे। धीरे-धीरे अशान्ति और कलह ने धर पकड़ा। माँ-बेटियों में ज़रा-ज़रा-सी बातों पर पहले मन-मुटाव हुआ, नित्य मौन-कोप हुआ, फिर खूब धूमधाम से वाक्युद्ध हुआ। आये दिन उपद्रव होने लगे। साले साहब को पर निकल आये, आवाज़ कस-कसकर कुत्ते का सम्बोधन 'जीजा जी' को देने लगे। साली का मधु-वर्षण भी अब कुटिल दृष्टि में बदल गया।

उस दिन कोई त्योहार था। हमने नया सूट सिलवाया था, वह पहना, माँग-पट्टी से ठीक हुए। एक पान का बीड़ा पत्नी से माँगा और ज़रा दोस्तों की झाँकी में निकलने की तैयारी की।

साली ने भीतर घुसते हुए ताने-भरी मुस्कराहट से कहा, "कहाँ चले नवाब साहब? आज तो बड़े गहरे ठाठ हैं।”

श्वसुर साहब बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। बोले, "क्यों नहीं, बेमुल्क-नवाब जो ठहरे !"

सास भी बोल उठीं, "खाने के वक्त तो आ ही जायेंगे!”

बुरा तो लगा, पर हम झंझट से घबराते बहुत कम हैं। हाँ, श्रीमती जी वहीं बैठी थीं, बोली, "अम्मा, कोई नवाबी करता है तो अपने पर ही करता है। किसी दूसरे पर नहीं। तुम्हारी आँखों में क्यों खटकता है?”

सास ने गरजकर कहा, "यह तू हमारी कोख फाड़कर जन्मी है, खसम की तरफ हमारे सामने मुँह फाड़कर बोलती है? अरी अभागिनी, तुम लोगों को शर्म भी नहीं आती? यह नवाबी करने को रुपये लुटाये जाते हैं। यह भी खबर है कि खाने को कहाँ से आता है? हमने बेटी दी है या दुनिया का पेट भरने का ठेका लिया है, जो गोड़े डालकर घर में पड़े हैं!”

श्वसुर जी बोले, "अक्ल तो उसकी देखो, जिसने बेटे-बहू को दूसरों के द्वार पर डाल दिया। खुद बेफिक्र हैं...अब इन्हें जिन्दगी-भर कमा-कमाकर खिलाते रहो !"

इसके आगे जो कुछ हुआ, वह न कहना ही अच्छा है। परिणामस्वरूप श्रीमती

ने भी मुझे ऐसी-ऐसी सुनायीं कि मैं खड़े-खड़े गड़ गया। उन्होंने बाल नोच डाले, कपड़े फाड़ डाले और कहा, "ऐसे बेशर्म की औरत होने की अपेक्षा राड-बेवा होती तो अच्छा था !"

मेरी आँखें खुल गयीं। मैं चुपचाप बाहर आया और सीधा दफ्तर पहुँचा। इस्तीफा दिया, और एक दोस्त से कुछ रुपये उधार ले, इक्का साथ लिये घर आया। आवश्यक सामान बाँध लिया, श्रीमती जी की बैठाया और घर आकर माता-पिता के चरणों में प्रणाम किया। तब से उस नरकरूपी ससुराल की ओर अभी तक मुँह नहीं किया है।

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