अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
दिल्ली में धूम मची थी। भारत स्वतन्त्र हुआ था। लालकिले पर और कचहरियों पर तिरंगा फहरा रहा था। चाँदनी चोक में दीवाली मनायी जा रही थी। पंजाब में लाखों स्त्री-पुरुष अपने ही रक्त में सराबोर इधर-उधर गली-कूचों में, पटरियों पर, सड़कों पर बसने की खटपट में संलग्न थे। कभी के जेल-पंछी बगुला के पर-सा श्वेत खद्दर परिधान धारणकर धड़ल्ले से चमचमाती मोटरों पर दौड़ रहे थे। धरती की छाती पर रेलें, आकाश के बादलों में हवाई जहाज़, बाज़ारों, सड़कों और सड़कों के पार गली-कूचों में सुख-दुख के झूलों में झूलते नर-नारी अपनी-अपनी धुन में भाग-दौड़ कर रहे थे। नयी दिल्ली की शानदार प्रशस्त सड़कों के बीच फव्वारे उसी प्रकार मस्ती कर रहे थे। अंग्रेज़ी साहबों की जगह खद्दरधारी छोड़ी हुई कोटियों में उन्हींकी भाँति कोचों पर जमे चाय, टोस्ट, मक्खन उड़ा रहे थे। ‘तू कहे न मेरी और मैं कहूँ न तेरी' वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी। अंग्रेज़ों की छत्र-छाया में पले खूनी पुलिस वाले अब, जिन्हें बेंतों से पीट चुके थे, उन्होंके आगे जिमनास्टिक की कसरतें कर रहे थे। रात शराब और हरामखोरी
में व्यतीत कर प्रभात की चाय की चुस्की के साथ रिश्वतों से जेबें भरे अब अदालत की कुर्सी पर घमण्ड से तने हुए मजिस्ट्रेट अंग्रेज़ों के बेईमान कानूनों के पलड़े पर रखकर न्याय तोल रहे थे। हरामखोरी की कमाई का पेशा करने वाले काले बाज़ार के साहूकार हाथों हाथ मुट्ठी गर्म कर रहे थे। आवारागर्द, निठल्ले और मोटेमल लोगों की भीड़ सिनेमाओं की खिड़की पर जुटी थी। भूखे, थके और चिन्ता-भरी दृष्टि लिये कुछ क्लर्क फाइलों का बोझ वबगल में दबे कदम बढ़े चले जा रहे थे।
टू मैन कभी जवाहरलाल को, कभी ईरान के शाह को, कभी पाकिस्तान के बाजीगर को 'भैया-चाचा' कहकर अपनी शतरंज के मुहरे चलाने की हिकमत में लगा था। स्टालिन बर्फ समुद्र पर तैरते हुए भेड़िये की भाँति-गुर्रा रहा था। चीन में एक राहु का उदय हुआ था और कभी का तानाशाह चांग काई शेक आज विश्व में भगोड़ा बना फिर रहा था। सारी दुनिया आतंक, भय, भूख से आशंकित थी, अणुबम और मृत्यु-किरण मनुष्य को उसके विकास का मजा चखाने को तैयार धरे थे और अभागा मानव अपने ही से भयभीत, थरथर कांप रहा था।
परन्तु उसे सबने क्या? वह सब भयों, चिन्ताओं खतरों को जीत चुका उसने जीवन जय किया था। अब वह अपराजित था।
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