अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
इतना कह मैं भीतर चला गया। सेठ भी अपने लट्टू वगैरह सम्भाल कर चलता बना।
अगले दिन मेरी तबीयत कुछ अच्छी न थी। परन्तु न जाना ठीक नहीं था। ठीक समय पर मैं सान्ताक्रूज़ गया। वहाँ जाकर देखा-स्टेशन पर बूढ़े सेठ का चिह भी न था। रात होती तो चिराग लेकर ढूँढ़ता, पर वहाँ तो धूप धक्-धक्। धधक रही थी। मैं जाकर एक बेंच पर बैठ गया। मन में बड़ी ग्लानि हुई। क्रोध भी आया, एक बार मन में आया, लौट चलें! सामने गाड़ी भी आ रही थी। फिर दिमाग को ठण्डा किया। विचारकर यही निश्चय किया कि जब आये हैं तो चलकर रोगियों को देख ही लेना चाहिए! पर चलें कहाँ? मैंने तो उसका नाम-पता लिख रखा था, वह भी घर ही भूल आया था। क्योंकि यह खयाल था कि सेठ जी स्टेशन पर मिल ही जाएँगे।
निदान टोह लेता हुआ मैं चला। मार्ग में एक पनवाड़ी की दुकान थी। उसपर एक मारवाड़ी नवयुवक बैठा हुआ तमोलिन से ठिठोली कर रहा था। मैंने उसे भांपकर पूछा, "भाई, यहाँ एक बूढ़ा-सा मारवाड़ी सेठ रहता है?”
"नाम बताओ-मारवाड़ी सेठ तो कई रहते हैं,”
"नाम तो याद नहीं रहा, वह मोटा-सा है-बहुत बकवादी है, कुछ-कुछ पागल जैसा!”
युवक ने हँसकर कहा, "ओहो! समझा, दलाल-दलाल! सीधे चले जाओ, आगे चलकर जीमने हाथ को मुड़ जाना। पागल जैसा कहने से मैं समझा।” इसके बाद वह तमोलिन से प्रेमालाप में जुट गया।
मैं अपनी चतुराई पर प्रसन्न होता हुआ आगे चला। सड़क पर मुड़कर फिर किसीसे पूछने की जुगत सोचने लगा। एक गुजराती छोकरा उधर से जा रहा था। पूछने पर उसने कहा, "आओ मेरे साथ!” उसके इस इत्मीनान के जवाब को सुनकर निश्न्चितता से उसके पीछे चला।
जब बस्ती बहुत पीछे छूट गयी और वह लड़का चलता ही गया तो मैंने उसे रोककर पूछा, "अरे किधर जा रहा है? मारवाड़ी क्या जंगल में घास खोद रहा होगा-या मच्छी मारता होगा? बंगले तो सब पीछे छूट गये।”
छोकरे ने कहा, "उधर कुछ काम चालू है-साला मारवाड़ी वहीं होगा।”
मैं वापस लौट आया। थक गया था-पसीने से सराबोर हो रहा था। मन में आया-पाजी को दो-चार गालियाँ ही देकर जी खुश करूं, कैसा हैरान किया! फिर ठण्डा होकर ढूँढ़ना शुरू किया। अब मन ही मन मैंने सोचा-इन बंगलों में किसी भले आदमी से पता पूछा और नाम न बता सका तो बड़ी बेवकूफी की बात होगी। लोग कहेंगे-अच्छा जेंटिलमैन है-जिसको ढूँढ़ता है उसका नाम भी नहीं जानता।
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