अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
लड़का बिना उज्र रुपये उठाकर हँसता हुआ भीतर चला गया।
सेठ जी हँसते हुए निकले। बढ़िया पगड़ी और अचकन डाटी थी। कहने लगे, "आप बड़े सज्जन हैं। आप तो धन्य हैं। मैं तो पहले ही जानता था। अबे उल्लू, पंडित जी को प्रणाम कर।”
मेरे लिए अब बैठना कठिन हो गया। मैं उठकर चुपचाप स्टेशन की ओर चल दिया। पीछे-पीछे सेठ चिल्लाता ही रहा, "महाराज, मेरा बंगला तो देखिये। यह बगीचा लगाया है। यह दीवानखाना है। यह विलायती टाइल का समूचा फर्श किसके घर में है? महाराज, सत्तर हज़ार रुपया इसमें मेरा लगा है।”
मैंने सुना ही नहीं। मैं सीधा स्टेशन आ पहुँचा। बूढ़ा भी पीछे-पीछे था। गाड़ी आने में देर थी। मैं बेंच पर बैठा था। सेठ ने कहा, "हुजूर के लिए टिकट थर्ड का लू या इण्टर का।”
मैंने कहा, "आप मेरे लिए कष्ट न करें, मेरे पास वापसी टिकट सेकेण्ड क्लास का है।”
बूढ़ा अपने लिए एक थर्ड क्लास का टिकट ले आया, और मेरे पास आकर बोला, "सरकार, आप हकीम और हाकिम हैं, राजा बाबू हैं। फर्स्ट-सेकेण्ड में बैठिये। हम तो बनिये हैं।”
मैंने उसे घूरकर कहा, "बनिया होना तो कोई ऐसी बुरी बात नहीं, पर असल बात तो यह है कि आप कन्जूस हैं।”
उसने ज़रा तैश में आकर कहा, "कन्जूस होने में क्या बुराई है?”
मैंने कहा, "उनमें सदा ही अक्ल की अधिकता रहती है। पैसा कमाना वे जानते हैं, खर्च करना नहीं। पैसे से इज़्ज़त-आबरू का क्या सम्बन्ध है, और इज़्ज़त किसे कहते हैं, यह भी वे नहीं जानते।"
मालूम होता है, बूढ़ा घाघ इस बार मेरे मतलब को समझ गया था। वह पी गया। गाड़ी आयी और हम लोग अपने-अपने डब्बों में बैठ गये।
सेठ ने पन्द्रह दिन की दवा बनाने का हुक्म दिया। शीशियाँ भी वह साथ नहीं लाया था। जब सब दवाइयाँ बन चुकीं तो उनका गट्ठर अंगोछे में बाँध बगल में दबा चलने लगा। चलती बार कहा, "अगर मेरे बच्चों को फायदा हो गया तो देखिये आपको कैसी-कैसी जगह खटवाता हूँ।”
मैं अब तक उसकी सारी हिमाकत देख रहा था। काम मैं दूसरे रोगियों का कर रहा था, पर ध्यान वहीं था। जब वह सीढ़ियों तक पहुँचा तो मैंने अन्ततः अपना शील भंग किया और कहा, "सेठ जी, कुछ दान-दक्षिणा देने का इरादा नहीं है क्या?"
सेठ जी चौंक पड़े, मानी इस बात का तो कुछ ख्याल ही उन्हें न था। बोले, "हाँ-हाँ, अच्छा इसका चार्ज क्या होगा?
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