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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

एक सप्ताह बीत गया। वह नहीं आया। यद्यपि मुझे उसके आने की बिलकुल आशा न थी। पर ख्याल था कि देखें-उसके मन में आत्मग्लानि उदय होती है या नहीं। जब सप्ताह बीत गया तो मन में विचार हुआ कि ऐसे आदमी को उसके लुच्चेपन में सफलता प्राप्त करने की अवकाश देकर अच्छा नहीं किया। मैं इस ताक में रहा कि मिले तो पकड़ लें।

एक दिन बाज़ार में वह मिल गया। सामना होते ही कतराकर भागा। पर मैंने ललकारकर कहा, "क्यों सेठ, वह कल अभी नहीं हुई?"

कहने लगा, "कल आऊँगा। जरूर आऊँगा।”

मैंने कहा, "अच्छी बात है, कल ही सही।”

और भी दस दिन बीत गये। एक रोज़ मैंने मकान से देखा, वह लपका हुआ जा रहा है। मैंने नौकर से कहा, "उस मोटे मारवाड़ी को पकड़ लाओ।”

वह उसे धकेल-धकालकर ले आया। वह फुफकारता हुआ आया। उसने कहा, "अंग्रेज़ी राज में धींगामुश्ती नहीं हो सकती; कहिये आप क्या कहते हैं?”

मैंने हँसकर कहा, "कुछ भी नहीं, आप बैठिये तो सही।”

सेठ कुर्सी पर बैठ गया। मैं चुपचाप लिखने में लग गया।

दो मिनट बैठकर कहा, "साहब, मैं जाता हूँ।”

मैंने कहा, "जाते कहाँ हैं, बैठिये।"

"कोई जबरदस्ती है? नहीं बैठते हम।"

"जबरदस्ती क्या है? बैठने में आपका सिर कटता है? गद्देदार कुर्सी है। पंखा चल रहा है।”

"आखिर कोई काम भी हो?”

"काम कुछ नहीं।”

"मैं अब जाता हूँ।” वह उठ खड़ा हुआ।

मैंने नौकर को बुलाकर कहा, "रामसिंह, सेठ के पीछे खड़े हो जाओ जब सेठ जी उठकर खड़े हों तो इनके कान पकड़कर कुर्सी पर बिठा दी!"

रामसिंह पछेया जवान! सेठ साहब धम्म से कुर्सी पर बैठ गये, उन्हें पसीना आ गया, रामसिंह उनके पीछे आ खड़ा हुआ। कुछ मिनट बाद सेठ ने जेब से चार रुपये निकालकर मेज पर पटक दिये और कहा, "ये रुपये हमारे हिसाब में जमा कर लीजिये, पीछे देखा जायेगा।”

मैंने कहा, "इन्हें जेब में ही रखिये। कुछ जल्दी थोड़े ही है। आपके पास रुपये रहे तो भी घर में ही हैं।”

सेठ साहब हड़बड़ा रहे थे। सिर पर यमदूत खड़ा था। आधा घंटा बीत गया। बिलकुल सन्नाटा था। सेठ ने जेब में फिर हाथ डाला। इस बार भीतरी जेब से एक नोटों का गट्ठर निकाला और उसमें से दस-दस के पाँच नीट निकालकर मेज पर छितरा दिये। फिर कहा, "लीजिये बस दोस्ती का हक अदा हो गया, मैंने तो सोचा था कि...खेर, आप रुपये सम्भालिये।”

कम्पाउण्डर ने रुपये सम्भालकर रसीद दे दी। कहने लगे, "रुपया ऐसी ही चीज़ है। इसके सामने मेल-मुलाकात और लिहाज कुछ नहीं ठहरते। कहिये, अब तो खुश? अब तो बाबा, जाने दो। इस राक्षस को दूर करो यहाँ से।”

मैंने कठिनाई से हँसी रोककर कहा, "सेठ जी, माफ कीजिये। बिना तेज़ नश्तर के फोड़ा नहीं चिरता, आप इस बात का ख्याल न करना।”

इसके बाद बूढ़े को पान-इलायची खिलाकर विदा किया।

इस घटना का युग बीत गया, पर अब भी जब सेठ जी का गुलगुला चेहरा और नोट गिनते समय की मुद्रा याद आ जाती है तो तबीयत खुश हो जाती है।

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