अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
|
6 पाठकों को प्रिय 174 पाठक हैं |
बड़ी बेगम...
भीड़ का पार न था। रामनाथ जी का व्याख्यान होगा। साढ़े आठ का समय था-पर नी बज रहे हैं। कहाँ है वह सबल वाग्धारा का वीर देशभक्त? हज़ारों हृदय उसके लिए उत्सुक हैं। अनेक लाल पगड़ियाँ और पुलिस सुपरिटेन्डेन्ट सुनहरी झब्बे में लौह भूषण छिपाए उसकी प्रतीक्षा में थे।
सभापति ने ऊबकर कहा, "महाशय, खेद है कि आज के वक्ता श्री रामनाथ जी का अभी तक पता नहीं है, अतएव आज की यह सभा विसर्जित की जाती है।”
इसी समय एक ओजस्वी स्त्री-कण्ठ ने कहा, "नहीं।” आकाश चीरकर यह "नहीं जनरव पर छा गया। भीड़ में से एक युवती धीरे-धीरे सभा-मंच की ओर अग्रसर हुई। मंच पर आकर उसने कहा, "भाइयो, रामनाथ जी किसी विशेष कार्य में व्यस्त हैं, उसके स्थानापन्न मैं अपने प्राण और शरीर को लिये आयी हूँ। मुझे दु:ख है कि मैं उनकी तरह व्याख्यान नहीं दे सकती, मगर मैं अभी इसी क्षण मजिस्ट्रेट की आज्ञा का विरोध करती हूँ। मैं अभी निर्दिष्ट स्थान पर जाती हूँ-आपमें से जिसे चलना हो मेरे साथ चलें। किन्तु जो केवल व्याख्यान सुनने के शौकीन हैं वे कहीं से किराये पर कोई व्याख्याता बुला लें।”
लोग स्तब्ध थे। स्त्री ने क्षण-भर जनसमुदाय को देखा, साड़ी का काछा कसा और चल दी। सारा ही जनसमुदाय उसके पीछे चल खड़ा हुआ। दो घण्टे बाद वह वीर बाला जेल की अंधेरी कोठरी में बन्द थी।
"तुमने यह क्या किया?”
"जो कुछ तुम्हें करना चाहिए था।”
"तुम इस योग्य न थे।”
"अब?"
"तुम जाओ, मैं यहीं तुम्हारे स्थान पर हूँ।”
"में जाऊँ?”
"तब क्या करोगे?”
"मैं कहूँ?”
"अवश्य।”
"और तुमसे?”
"हाँ मुझसे।”
युवती ज़ोर से हँसी, इस हँसी में अवज्ञा थी। उसने कहा, "तुम्हारे त्याग और वीरता के रूप को ही मैंने प्यार किया था, पर उसके भीतर तुम्हारा वह कायर रूप है, इसकी आशा न थी। जाओ, चले जाओ, हिन्दू स्त्री एक ही पुरुष को जीवन में प्यार करती है। मैंने जो भूल की है-उसका प्रतिशोध मैं करूंगी। जाओ प्यारे, जीवन का बहुत मूल्य है।”
इतना कहकर युवती कोठरी में पीछे को लौट गयी। वार्डर ने युवक को बाहर कर दिया ।
|