अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
लौह दण्ड
फील्ड-मार्शल लाकहार्ट बड़ी बेचैनी से अपने खास कमरे में टहल रहे थे। उनकी मुट्ठी में एक महत्त्वपूर्ण पत्र था। उसे वे कई बार पढ़ चुके थे। उनके मस्तिष्क में विभिन्न विचारों का तूफ़ान उठ रहा था। वे उस योजना को मुकम्मिल किया चाहते थे, जिसे वे गत दो सप्ताह से कार्यान्वित करने के तमाम ताने-बाने बुनते रहे थे। सुगन्धित सिगरेट एक के बाद एक खत्म होती जाती थी। इसी समय घड़ी ने टन्-टन् करके ग्यारह बजाये। उन्होंने चौंककर घड़ी की ओर देखा, चेहरे पर व्यग्रता और चिन्ता के लक्षण प्रकट हुए। इसी समय उनके खानसामा मिर्जा सईद ने आकर झुककर सलाम किया और कहा, ‘हुजूर, खाना चुन दिया गया है।”
"क्या वक्त हो गया?"
"जी हाँ हुजूर, ग्यारह बजे खाना चुनने का हुक्म हुआ था। ग्यारह बज चुके।” उसने एक बार दीवार पर लटकते हुए घण्टे पर दृष्टि डाली।
"ओह, ठीक है। लेकिन मिर्जा मैं अपने मेहमानों की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। खाना तीन व्यक्तियों का चुना गया है न?"
"जी हाँ, हुजूर! मैं जानता हूँ कि खुद गवर्नर जनरल लार्ड माउण्टबेटन भी आज हुजूर के साथ खाना खाएँगे।”
"चुप, यह बात बहुत पोशीदा रखने की है। गवर्नर जनरल नहीं चाहते कि आज की दावत की कहीं चचा की जाए।”
"तो खुदावन्द, बन्दे के होंठ सिले हुए हैं, सिर्फ हुजूर को ही अर्ज किया है।”
"तुम अक्लमन्द ही, मिर्जा, हम तुमसे खुश हैं। हमारे विलायत जाने के बाद तुम अगर पाकिस्तान जाना चाहो तो हम वहाँ के गवर्नर जनरल को एक चिट्ठी लिखकर तुम्हें खास गवर्नर जनरल का खानसामा मुकर्रिर कर देंगे।”
"शुक्रिया हुजूर, मगर मैं किसी खास वजह से दिल्ली छोड़ना नहीं पसन्द करता।"
"वह खास वजह क्या है?"
"खुदावन्द, गुलाम ने हमेशा आप जैसे शेरदिल अंग्रेज़ अफसरों और जनरलों की हाजिरी बजायी है। अब इस बुढ़ापे में किसी हिन्दुस्तानी की नौकरी मैं न कर सकूंगा, न उसका हुक्म मान सकूंगा।”
"लेकिन पाकिस्तान के गवर्नर जनरल मि. जिन्ना हैं, बहुत बड़ा आदमी।”
"जी हाँ, पर वह मेरे ही जैसा मुसलमान और हिन्दुस्तानी है।”
"बहुत बड़ा मुसलमान!”
"हुजूर, मुसलमान बड़ा-छोटा क्या? सब मुसलमान बराबर हैं, भाई हैं।”
"तो भाई की नौकरी नहीं करेगा?”
"नहीं हुजूर, भाई की खातिर करूँगा, उससे मुहब्बत करूँगा; मगर नौकरी नहीं।”
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