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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

"निस्सन्देह सर, मैं आपका हुक्म नहीं मान सकता।”

"क्या तुम मार्शल लॉ के नियम जानते हो?”

“निश्चय, सर लाकहार्ट!"

"तो तुम अफसर का हुक्म मानने से इन्कार करते हो?”

"हां, सर!"

"क्या तुम अपनी सफाई में कुछ कहना चाहते हो?”

"सिर्फ एक शब्द।”

"क्या?"

"यह कि आप और में हिन्द सरकार के नौकर हैं। आप मेरे अफसर अवश्य हैं, पर मैं आपके हुक्म से ऐसा कार्य नहीं कर सकता जो हिन्द सरकार का विरोधी हो।"

"तुम चाहते क्या हो करिअप्पा ?” सरदार ने पूछा।

“सिर्फ एक बात।”

"क्या?"

"यदि आप मुझे काश्मीर भेजना चाहते हैं, तो सब कुछ मुझपर और मेरे साथियों पर छोड़ दीजिए। अंग्रेज़ अफसरों को तुरन्त बुला लीजिए। मैं अंग्रेज़ अफसरों की मातहती में काम नहीं करूंगा।”

सर लाकहार्ट ने कहा, "ऐसा नहीं हो सकता।”

सरदार ने कहा, "मैं करिअप्पा की प्रार्थना स्वीकार करता हूँ। सर लाकहार्ट, आप अभी काश्मीर के मोर्चे पर करिअप्पा की कमान में सेना भेज दें और अंग्रेज अफसरों को तुरन्त वापस बुला लें। करिअप्पा की इच्छानुसार ही सब व्यवस्था कर दीजिए।”

शिमला के एक शानदार होटल में दो आदमी एकाग्रचित ही मेज पर फैले हुए एक मानचित्र को देखने में तन्मय थे। उनमें से एक बीच-बीच में लाल पेंसिल से उसमें कहीं-कहीं चिह करता जाता था। बातचीत नहीं हो रही थी। कमरे का द्वार भीतर से बन्द था। एक आदमी लम्बा-तगड़ा था और उसके मुँह पर रुआबदार दाढ़ी थी। उसकी आयु 25 के लगभग होगी। दूसरा क्लीन-शेव्ड था। अपेक्षाकृत वह आयु में कम था परन्तु उसके नेत्रों से बुद्धिमत्ता टपक रही थी। पहला व्यक्ति आज़ाद हिन्द फौज का एक जनरल था तथा दूसरा व्यक्ति मेजर।

अन्त में जनरल ने सन्नाटा भंग किया। उसने कहा, "दोस्त मेजर, यह ती सारा काम ही खराब हो गया।”

"कैसे? हिन्द सरकार ने 40 लाख रुपये वार्षिक की सहायता स्वीकार कर ली है, तथा सैनिक अफसरों की सहायता का भी उसने वचन दिया है। मेरी समझ में तो हमें सेना का संगठन-कार्य प्रारम्भ कर देना चाहिए।"

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