अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
तब या अब
दो बांके राजपूत बीहड़ जंगल में चुपचाप घोड़े पर सवार चले जा रहे थे। उनमें एक की पोशाक काली और घोड़ा भी काला ही था, परन्तु उसके सिर पर रत्नजड़ित तुर्रा, गले में बहुमूल्य मोतियों की माला और कमर में पन्ने की मूठ की सिरोही थी। इस व्यक्ति की अभी उठती आयु थी। बड़ी-बड़ी आँखें, अंगारे की भाँति देदीप्यमान मुख और उसपर कानों तक तनी हुई मूंछे थीं। दूसरा साथी भी सब हथियारों से लैस था। वह एक अत्यन्त चपल मुश्की काठियावाड़ी घोड़े पर सवार था-उसकी धज से वीरता टपकती थी। दोनों सवार चुपचाप, घोड़ा दबाये चले जा रहे थे। रात अभी बाकी थी। बहुत दूर पूर्व के क्षितिज पर पीले प्रकाश की एक रेखा-मात्र दीख रही थी। रास्ता बीहड़ और पहाड़ी था, पग-पग पर घोड़े ठोकर खा रहे थे। तारों के क्षीण प्रकाश में न सवारी को, न घोड़े को मार्ग ठीक-ठीक दीख रहा था परन्तु वे किसी भी कठिनाई की बिना परवाह किये आगे बढ़ते जा रहे थे। ऐसी सन्नाटे की रात में ऐसे बीहड़ मार्ग पर चलना साधारण यात्रियों का काम न था। बड़े-बड़े वृक्ष काले-काले भूत-से लग रहे थे और पर्वत की गगनचुम्बी शिखाएँ, उस अन्धेरी घाटी में अन्धकार बिखेर रही थीं।
अचानक डाकुओं के एक दल ने राह रोककर ललकारा-"वहीं खड़े रहो और जो कुछ पास है रख दी!”
अनुगत राजपूत ने स्वामी की ओर देखा और कहा-"तब या अब?”
राजकुमार ने मन्द हास्य से कहा- "तब!”
यह सुनते ही राजपूत ने पास की नकदी चुपचाप डाकुओं को दे दी, राजकुमार ने भी सब रत्नाभूषण उतार दिये।
डाकू सरदार ने कर्कश। स्वर में कहा-
"हथियार भी धर दी।”
"हथियार रख दिये गये।”
"घोड़े भी दो और कपड़े भी उतारो।”
चुपचाप दोनों घोड़ों से उतर पड़े और वस्त्र उतारकर डाकुओं के आगे डाल दिये।
इसके बाद राजपूत ने गम्भीर भाव से डाकू सरदार से कहा-
"अब जाएँ?”
"नहीं।” डाकू सरदार ने आगे बढ़कर मेघगर्जना की भाँति कहा।
"अब और तुम क्या चाहते हो?” राजपूत ने जिज्ञासा से पूछा।
डाकू सरदार ने कर्कश स्वर में कहा- "देखने में तुम दोनों बड़े बांके वीर प्रतीत होते हो। मूंछ चढ़ी हुई, हथियार बाँधे हुए हो। घोड़े भी अच्छे हैं। परन्तु वास्तव में तुम पूरे कायर हो। बिना लड़े-भिड़े चुपचाप अपना सर्वस्व हमें दे दिया? तुमपर और तुम्हारी जवानी पर धिक्कार है। तुम वास्तव में वीरों के वेश में नामर्द हो।”
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