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गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल

जानकी मंगल

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 908
आईएसबीएन :81-293-0503-8

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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....

 

पुर नर नारि निहारहिं रघुकुल दीपहि।
दोषु नेहबस देहिं बिदेह महीपहि॥६५॥
एक कहहिं भल भूप देहु जनि दूषन।
नृप न सोह बिनु बचन नाक बिनु भूषन॥६६॥

 

नगरके स्त्री-पुरुष रघुकुलके दीपक श्रीरामचन्द्रजीको देखते हैं और प्रेमवश महाराज जनकको दोष देते हैं॥६५॥ कोई कहते हैं-‘महाराज तो बड़े अच्छे हैं, उन्हें दोष मत दो, देखो, वचनके बिना राजा और भूषणके बिना नाक भले नहीं होते ॥६६॥

 

हमरें जान जनेस बहुत भल कीन्हेउ।
पन मिस लोचन लाहु सबन्हि कहँ दीन्हेउ॥६७॥
अस सुकृती नरनाहु जो मन अभिलाषिहि।
सो पुरइहिं जगदीस परज पन राखिहि ॥६८॥

 

'हमारी समझमें तो राजाने बहुत अच्छा किया जो अपनी शर्तके बहाने हम सबको नेत्रोंका फल दिया ॥६७॥ ऐसे पुण्यात्मा राजा मनमें जो अभिलाषा करेंगे, उसीको जगदीश्वर पूरा कर देंगे और उनकी प्रतिज्ञा एवं शर्तकी रक्षा करेंगे॥६८॥

 

प्रथम सुनत जो राउ राम गुन-रूपहि।
बोलि ब्याहि सिय देत दोष नहिं भूपहि॥६९॥
अब करि पइज पंच महँ जो पन त्यागै।
बिधि गति जानि न जाइ अजसु जग जागै॥७०॥

 

यदि महाराज [शर्त करनेसे] पहले श्रीरामचन्द्रजीका रूप और गुण सुन लेते तो इन्हें बुलाकर जानकीजीको ब्याह देते। उस समय ऐसा करनेमें महाराजको कोई दोष स्पर्श नहीं करता ॥६९।। किंतु अब प्रण करके यदि वे पंचोंमें (जनसमुदायमें) अपना प्रण त्यागते हैं तो विधाताकी गति तो जानी नहीं जाती, किंतु संसारमें तो उनका अपयश फैल हीं जायगा।।७०॥

 

अजहुँ अवसि रघुनंदन चाप चढ़ाउब।
ब्याह उछाह सुमंगल त्रिभुवन गाउब॥७१॥
लागि झरोखन्ह झाँकहिं भूपति भामिनि।
कहत बचन रद लसहिं दमक जनु दामिनि॥७२॥

 

'अब भी श्रीरामचन्द्रजी अवश्य धनुष चढ़ायेंगे और उनके विवाहोत्सवमें त्रिलोकी मंगलगान करेगी' ॥७९॥ इस समय राजमहिलाएँ झरोखोंसे लगकर झाँक रही हैं और बात करते समय उनके दाँत इस प्रकार चमक रहे हैं, जैसे बिजली ॥७२॥

 

दो०-जनु दमक दामिनि रूप रति मद निदरि सुंदरि सोहहीं।
मुनि ढिग देखाए सखिन्ह कुँवर बिलोकि छबि मन मोहहीं॥
सिय मातु हरषी निरखि सुषमा अति अलौकिक रामकी।
हिय कहति कहँ धनु कुँअर कहँ बिपरीत गति बिधि बाम की॥९॥

 

[उनके दाँत ऐसे जान पड़ते हैं। मानो बिजली चमक रही हो। वे कामिनियाँ अपने रूपसे रतिके मदका निरादर करती हुई शोभा पा रही हैं। [सखियोंने सुनयनाजीको] मुनिके समीप दोनों कुमारों को दिखलाया। उनकी छबि देख उनका मन मोहित हो गया। श्रीरामचन्द्रजीकी अत्यन्त अलौकिक शोभाको देख जानकीजीकी माता प्रसन्न हुईं और मन-ही-मन कहने लगीं कि 'कहाँ धनुष और कहाँ ये कुमार? वाम विधाताकी गति बड़ी विपरीत है'।।९।।
 
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