गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल जानकी मंगलहनुमानप्रसाद पोद्दार
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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....
िरास सब भूप ब्रिलोकत रामहि।
पन परिहरि सिय देब जनक बरु स्यामहि॥५७॥
कहहिं एक भलि बात ब्याहु भल होइहि।
बर दुलहिनि लगि जनक अपनपन खोइहि॥५८॥
पन परिहरि सिय देब जनक बरु स्यामहि॥५७॥
कहहिं एक भलि बात ब्याहु भल होइहि।
बर दुलहिनि लगि जनक अपनपन खोइहि॥५८॥
श्रीरामचन्द्रजीको देखकर सब राजा निराश हो गये कि अब तो राजा जनक शर्त त्यागकर जानकीको साँवले वरके साथ ही ब्याह देंगे॥५७॥ कोई कहते हैं-'अच्छी बात है, विवाह अच्छा होगा, यदि वर और दुलहिनके लिये जनक अपनी शर्त छोड़ देंगे'॥५८॥
सुचि सुजान नृप कहहिं हमहि अस सूझई।
तेज प्रताप रूप जहँ तहँ बल बूझई॥५९॥
चितइ न सकहु राम तन गाल बजावहु।
बिधि बस बलउ लजान सुमति न लजावहु॥६०॥
तेज प्रताप रूप जहँ तहँ बल बूझई॥५९॥
चितइ न सकहु राम तन गाल बजावहु।
बिधि बस बलउ लजान सुमति न लजावहु॥६०॥
शुद्ध हृदयके ज्ञानवान् राजालोग कहने लगे-हमको तो ऐसा जान पड़ता है कि जहाँ तेज, प्रताप और सुन्दरता होती है, वहीं बल भी जान पड़ता है॥५९॥ देखो, तुम श्रीरामचन्द्रजीकी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकते, बेमतलब गाल बजाते हो। प्रारब्धवश तुमलोगोंका बल तो लजा ही गया, अब व्यर्थ अपनी सुबुद्धिको मत लजाओ।।६०।।
अवसि राम के उठत सरासने दूटिहि।
गवनहिं राजसमाज नाक अस फूटिहि॥६१॥
कस न पिअहु भरि लोचन रूप सुधा रसु।
करहु कृतारथ जन्म होहु कत नर पसु ॥६२॥
गवनहिं राजसमाज नाक अस फूटिहि॥६१॥
कस न पिअहु भरि लोचन रूप सुधा रसु।
करहु कृतारथ जन्म होहु कत नर पसु ॥६२॥
श्रीरामचन्द्रजीके उठते ही धनुष अवश्यं टूट जायगा और नाक फूटनेपर जैसे समाजसे उठ जाना पड़ता है, वैसे ही सारे राजसमाजको चला जाना पड़ेगा।।६१॥ ‘तुमलोग श्रीरामचन्द्रजीके अमृतमय रूपरसको नेत्र भरकर क्यों नहीं पीते ? अपने जन्मको कृतार्थ कर लो। नर-पशु क्यों बनते हो?' ॥६२॥
दुहु दिसि राजकुमार बिराजत मुनिबर।
नील पीत पाथोज बीच जनु दिनकर॥६३॥
काकपच्छ रिषि परसत पानि सरोजनि।
लाल कमल जनु लालत बाल मनोजनि॥६४॥
नील पीत पाथोज बीच जनु दिनकर॥६३॥
काकपच्छ रिषि परसत पानि सरोजनि।
लाल कमल जनु लालत बाल मनोजनि॥६४॥
मुनिवर विश्वामित्रके दोनों ओर दोनों राजकुमार वैसे ही सुशोभित हो रहे हैं जैसे नीले और पीले कमलके बीचमें सूर्य हों ॥६३॥ मुनिवर अपने करकमलोंसे उनकी अलकका स्पर्श करते हैं, जिससे ऐसा जान पड़ता है, मानो अरुण कमल बालक कामदेवका लालन करते हों ॥६४॥
ो०-मनसिज मनोहर मधुर मूरति कस न सादर जोवहू।
बिनु काज राज समाज महुँ तजि लाज आपु बिगोवहू॥
सिष देइ भूपति साधु भूप अनूप छबि देखने लगे।
रघुबंस कैरव चंद चितइ चकोर जिमि लोचन लगे॥८॥
बिनु काज राज समाज महुँ तजि लाज आपु बिगोवहू॥
सिष देइ भूपति साधु भूप अनूप छबि देखने लगे।
रघुबंस कैरव चंद चितइ चकोर जिमि लोचन लगे॥८॥
'अरे, कामदेवके भी मनको चुरानेवाली इन मधुर मूर्तियोंको तुम सादर क्यों नहीं निहारते ? तुम बिना ही प्रयोजन इस राजसमाजमें लज्जा त्यागकर अपनेको नष्ट करते हो!' राजाओंको ऐसी शिक्षा देकर वे साधुस्वभाव नृपतिगण उनकी अनुपम, छबि निरखने लगे। उस समय रघुकुल-कुमुदचन्द्र श्रीरामजीको देखकर चकोरके समान उनके नेत्र चन्द्रमाको देखनेवाले चकोर पक्षीके समान ठग गये अर्थात् उन्हींकी ओर लगे रह गये ॥८॥
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