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गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल

जानकी मंगल

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 908
आईएसबीएन :81-293-0503-8

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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....

रंगभूमि में राम

 

राजत राज समाज जुगल रघुकुल मनि।
मनहुँ सरद बिधु उभय नखत धरनी धनि॥४९॥
काकपच्छ सिर सुभग सरोरुह लोचन।
गौर स्याम सत कोटि काम मद मोचन॥५०॥

 

उस राजाओंकी सभामें वे दोनों रघुकुलमणि इस प्रकार सुशोभित हो रहे हैं, मानो शरत्-कालके दो चन्द्रमा नक्षत्ररूपी राजाओंके मध्य शोभायमान हों ॥४९॥ उनके मस्तकपर सुन्दर काकपक्ष (जुल्फें) हैं और नेत्र कमलके समान हैं तथा उनकी श्याम-गौर मूर्ति सैकड़ों, करोड़ों कामदेवोंके मदका नाश करनेवाली है ॥५०॥

 

तिलकु ललिते सर झुकुटी काम कमाने।
श्रवन बिभूषन रुचिर देखि मन मानै॥५१॥
नासा चिबुके कपोल अधर रद सुंदर।
बदन सरद बिधु निंदक सहज मनोहर॥५२॥

 

उनकी भुकुटिरूप कामदेवकी कमानपर सुन्दर तिलक बाणके समान सुशोभित है। उनके सुन्दर कर्णभूषण देखकर मन प्रसन्न हो जाता है॥५१॥ उनकी नाक, ठोड़ी, कपोल, होठ और दाँत सुन्दर हैं तथा शरत्कालके चन्द्रमाकी निन्दा करनेवाला उनका मुख स्वभावसे ही मनको हरनेवाला है॥५२॥

 

उर बिसाल बृष कंध सुभग भुज अतिबल।
पीत बसन उपबीत कंठ मुकुता, फल॥५३॥
कटि निषंग कर कमलन्हि धरें धनु-सायक।
सकल अंग मन मोहन जोहन लायक ॥५४॥

 

उनका वक्षःस्थल विशाल है, कंधे वृषभके टिलेके समाने सुन्दर हैं। और भुजाएँ अति बलवान् हैं। वे पीताम्बर और जनेऊ धारण किये हुए हैं तथा उनके गलेमें मोतियोंका हार सुशोभित है॥५३॥ वे कमरमें तरकस और करकमलोंमें धनुष-बाण धारण किये हैं। इस प्रकार उनके सभी अंग मनको मोहनेवाले और दर्शनीय हैं॥५४॥

 

राम-लखन-छबि देखि मगन भए पुरजन।
उर अनंद जल लोचन प्रेम पुलक तन॥५५॥
नारि परस्पर कहहिं देखि दोउ भाइन्ह।
लहेड जनम फल आजु जनमि जग आइन्ह॥५६॥

 

श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजीकी शोभाको देख पुरजन आनन्दित हो गये। उनके हृदयमें आनन्द, नेत्रों में जल और शरीरमें प्रेमजनित रोमांच हो आया॥५५॥ दोनों भाइयोंको देखकर स्त्रियाँ आपसमें कहती हैं कि 'हम जो जगत्में जन्म लेकर आयी थीं सो आज हमें जन्मका फल प्राप्त हुआ' ॥५६॥

 

दो०-जग जनम लोयन लाहु पाए सकल सिवहि मनावहीं।
बरु मिलौ सीतहि साँवरो हम हरषि मंगल गावहीं॥
एक कहहिं कुँवरु किसोर कुंलिस कठोर सिव धनु है महा।
किमि लेहिं बाल मराल मंदर नृपहि अस काहुँ ने कहा॥७॥

 

'हमने जगत्में जन्म लेकर नेत्रोंका लाभ पाया।' यों कहकर सब शिवजीसे मनाती हैं कि सीताको साँवला वर मिले और हमलोग हर्षित होकर मंगल गावें। कोई कहती हैं कि 'कुँवर बालक हैं और शिवजीका धनुष वज्रके समान अत्यन्त कठोर है। राजासे यह बात किसीने नहीं कही कि हंसके बच्चे पर्वत किस प्रकार उठायेंगे' ॥७॥
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