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गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल

जानकी मंगल

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 908
आईएसबीएन :81-293-0503-8

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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....

विश्वामित्रजी का स्वयंवर के लिये प्रस्थान

 

बिप्र साधु सुर काजु महामुनि मन धरि।
रामहि चले लिवाइ धनुष मख मिसु करि॥३९॥
गौतम नारि, उधारि पठे पति धामहि।
जनक नगर ले गयउ महामुनि रामहि॥४०॥

 

फिर ब्राह्मण, साधुओं और देवताओंका कार्य मनमें रखे महामुनि विश्वामित्रजी धनुष-यज्ञके बहाने श्रीरामचन्द्रजीको लेकर चले ॥३९॥ [मार्ग में श्रीरामचन्द्रजीके चरण-स्पर्शसे] गौतमकी पत्नी अहल्याका उद्धार करा उसे पतिलोकको भेज दिया और [तत्पश्चात्] वे महामुनि श्रीरामचन्द्रजीको जनकपुर ले गये ॥४०॥

 

दो०-लै गयउ रामहि गाधि सुवन बिलोकि पुर हरषे हिएँ।
सुनि राउ आगे लेन आयउ सचिव गुर भूसुर लिएँ॥
नृप गहे पाय असीस पाई मान आदर अति किएँ।
अवलोकि रामहि अनुभवत मनु ब्रह्मसुख सौगुन किएँ॥५॥

 

गाधिसुत श्रीविश्वामित्रजी रामचन्द्रजीको लेकर गये। वे (जनक) पुरको देखकर हृदयमें अत्यन्त प्रसन्न हुए। विश्वामित्रजीका आगमन सुन महाराज जनक मन्त्री, गुरु और ब्राह्मणोंको लेकर आगे लेने आये। महाराजने मुनिवरके चरण पकड़े और उनसे आशीर्वाद पाया, फिर उनका अत्यन्त आदर-सत्कार किया। श्रीरामचन्द्रजीको देखकर तो वे अपने मनमें मानो सौगुना ब्रह्मसुख अनुभव कर रहे थे॥५॥

 

देखि मनोहर मूरति मन अनुरागेउ।
बँधेउ सनेह बिदेह बिराग बिरागेउ॥४१॥
प्रमुदित हृदयँ सराहत भल भवसागर।
जहँ उपजहिं अस मानिक बिधि बड़ नागर॥४२॥

 

उस मनोहर मूर्तिको देखकर महाराज जनकके मनमें प्रेम उत्पन्न हो गया। वे प्रेममें बँध गये और उनका सारा वैराग्य विरक्त हो गया (अर्थात् जाता रहा) ॥४१॥ वे सानन्द हृदयसे सराहना करने लगे कि 'यह भवसागर बड़ा अच्छा है, जिसमें ऐसे उत्तम माणिक्य पैदा होते हैं। वास्तवमें . ब्रह्मा बड़ा ही चतुर हैं'॥४२॥

 

पुन्य पयोधि मातु पितु ए सिसु सुरतरु।
रूप सुधा सुख देत नयन अमरनि बरु॥४३॥
केहि सुकृती के कुँअर कहिय मुनिनायक।
गौर स्याम छबि धाम धरें धनु सायक॥४॥

 

इनके माता-पिता पुण्यके समुद्र हैं, जिनके नेत्ररूप देवताओंको ये बालकरूप कल्पवृक्ष अपने सौन्दर्य-सुधाका सुख प्रदान करते हैं ॥४३॥ हे मुनिनायक! कहिये, ये धनुर्बाणधारी गौर-श्याम शोभामय बालक किस पुण्यात्माके पुत्र हैं? ॥४४॥

 

िषय बिमुख मन मोर सेइ परमारथ।
इन्हहिं देखि भयो मगन जानि बड़ स्वारथ॥४५॥
कहेउ सप्रेम पुलकि मुनि सुनि महिपालक।
ए परमारथ रूप ब्रह्ममय बालक॥४६॥

 

[निरन्तर] परमार्थ-चिन्तन करनेसे मेरा मन विषयोंसे विमुख हो गया है, किंतु इन्हें देखकर वह अपना बड़ा भारी स्वार्थ जान आनन्दमें मग्न हो गया है, ॥४५॥ तब मुनीश्वरने पुलकित होकर प्रेमपूर्वक कहा-हे पृथ्वीपते! ये बालक ब्रह्ममयं, अतएव परमार्थस्वरूप ही हैं॥४६॥

 

पूषन बंस बिभूषन दसरथ नंदन।
नाम राम अरु लखन सुरारि निकंदन ॥४७॥
रूप सील बय बंस राम परिपूरन।
समुझि कठिन पन आपन लाग बिसूरन॥४८॥

 

‘ये सूर्यकुलके भूषण [महाराज] दशरथके पुत्र हैं, इनका नाम राम और लक्ष्मण है और ये दैत्योंका नाश करनेवाले हैं॥४७॥ श्रीरामचन्द्रजी सुन्दरता, शील, आयु और वंशमें परिपूर्ण हैं (अर्थात् इन दृष्टियोंसे इनमें कोई कमी नहीं है)' किंतु अपनी कठिन शर्त जानकर राजा जनक सोचमें पड़ गये ॥४८॥

 

दो०-लागे बिसूरन समुझि पन मन बहुरि धीरज आनि कै।
लै चले देखावन रंगभूमि अनेक बिधि सनमानि कै॥
कौसिक सराही रुचिर रचना जनक सुनि हरषित भए।
तब राम लखन समेत मुनि कहँ सुभग सिंहासन दए॥६॥

 

अपनी शर्तको विचार करके महाराज जनक सोचमें पड़ गये। फिर मनमें धैर्य धारणकर वे अनेक प्रकारसे सम्मान करके उन्हें रंगभूमि दिखलानेको ले चले। विश्वामित्रने उसकी सुन्दर रचनाकी बड़ाई की, उसे सुनकर राजा जनक बड़े प्रसन्न हुए। तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजीके सहित उन्होंने मुनिवरको सुन्दर सिंहासन दिये ॥६॥

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