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गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल

जानकी मंगल

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 908
आईएसबीएन :81-293-0503-8

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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....

पाइ मातु पितु आयसु गुरु पायन्ह परे।
कटि निषंग पेट पीत करनि सर धनु धरे॥२७॥
पुरबासी नृप रानिन्ह संग दिये मन।।
बेगि फिरेउ करि काजु कुसल रघुनंदन॥२८॥

 

माता-पिताकी आज्ञा पाकर श्रीराम और लक्ष्मणजी कमरमें तरकस और पीताम्बर तथा हाथोंमें धनुष और बाण लिये गुरुके चरणोंपर गिरे॥२७॥ पुरवासी, राजा और रानियोंने अपने मनको श्रीरामचन्द्रजीके साथ कर दिया और कहने लगे-'हे रघुनन्दन! मुनिवरका कार्य करके कुशलपूर्वक शीघ्र ही लौट आना' ॥२८॥

 

ईस मनाई असीसहिं जय जसु पावहु।
न्हात खसै जनि बार गहरु जनि लावहु॥२९॥
चलत सकल पुर लोग बियोग बिकल भए।
सानुज भरत सप्रेम राम पायन्ह नए॥३०॥

 

वे सब शिवजीको मनाकर राम-लक्ष्मणको आशीर्वाद देते हैं कि 'तुम विजय और यश प्राप्त करो, नहानेमें भी तुम्हारा केश न गिरे (अर्थात् तुम्हें किसी भी अवस्थामें किसी प्रकारका कष्ट न हो) और देखो, आनेमें देरी न करना' ॥२९॥ उनके चलते समय सकल पुरवासी वियोगसे विह्वल हो गये और छोटे भाई शत्रुघ्नके सहित भरतजीने श्रीरामचन्द्रके चरणों में प्रणाम किया ॥३०॥

 

होहिं सगुन सुभ मंगल जनु कहि दीन्हेउ।
राम लखन मुनि साथ गवन तब कीन्हेउ॥३१॥
स्यामल गौर किसोर मनोहरता निधि।
सुषमा सकल सकेलि मनहुँ बिरचे बिधि॥३२॥

 

तरह-तरहके शुभ शकुन होने लगे, मानो उन्होंने भावी मंगलकी सूचना दे दी। तब श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजीने विश्वामित्र मुनिके साथ प्रस्थान किया ॥३१॥ वे क्रमशः श्याम और गौर तथा किशोर अवस्थावाले हैं और दोनों ही मानो मनोहरताके भंडार हैं। ऐसा जान पड़ता है, मानो ब्रह्माजीनें सारी शोभाको बंटोरकर ही इन्हें रचा है॥३२॥

 

दो०-बिरचे बिरंचि बनाइ बाँची रुचिरता रंचौ नहीं।
दस चारि भुवन निहारि देखि बिचारि नहिं उपमा कहीं॥
रिषि संग सोहत जात मग छबि बसत सो तुलसी हिएँ।
कियो गवन जनु दिननाथ उत्तर संग मधु माधव लिएँ॥४॥

 

ब्रह्माजी ने इन्हें ऐसा सँवारकर रचा है कि मानो इन्हें छोड़कर अब थोड़ी-सी भी सुन्दरता शेष नहीं रही। चौदहों भुवनमें बहुत विचारपूर्वक देखा, परंतु कहीं भी इनकी उपमा नहीं है। वे ऋषिके साथ मार्गपर चलते हुए अत्यन्त शोभायमान हो रहे हैं, उनकी वह छबि तुलसीदासके हृदयमें बस गयी है। वे ऐसे जाने पड़ते हैं मानो मधु (चैत्र) और माधव (वैशाख)-के साथ सूर्यदेव उत्तर दिशाको जा रहे हैं॥४॥

 

गिर तरु बेलि सरित सर बिपुल बिलोकहिं।
धावहिं बाल सुभाये बिहग मृग रोकहिं॥३३॥
सकुचहिं मुनिहि सभीत बहुरि फिरि आवहिं।
तोरि फूल फल किसलय माल बनावहिं॥३४॥

 

मार्गमें अनेकों पर्वत, वृक्ष, लता, नदी और तालाब देखते हैं। बालक-स्वभावसे दौड़ते हैं तथा पक्षी और मृगोंको रोकते हैं॥३३॥ और फिर मुनिसे डरकर संकुचित हो लौट जाते हैं तथा फल-फूल और नये पत्तोंको तोड़कर माला बनाते हैं॥३४॥

 

देखि बिनोद प्रमोद प्रेम कौसिक उर।
करत जाहिं घने छाँह सुमन बरषहिं सुर॥३५॥
बधी ताड़का राम जानि सब लायक।
बिद्या मंत्र रहस्य दिए मुनिनायक॥३६॥

 

श्रीरामचन्द्रजीके आमोद-प्रमोदको देखकर कौशिकमुनिके हृदयमें प्रेम उमड़ आता है। मार्गमें मेघ छाँह किये जाते हैं और देवतालोग फूल बरसाते जाते हैं॥३५॥ (इसी समय) श्रीरामचन्द्रजीने ताड़काको वध किया। तब मुनिराजने उन्हें सब प्रकार योग्य जानकर मन्त्र और रहस्यसहित शस्त्र-विद्या दी॥३६॥

 

मन लोगन्हके करत सुफल मन लोचन।
गए कौसिक आश्रमहिं बिप्र भय मोचन॥३७॥
मारि निसाचर निकर जग्य करवायउ।
अभय किए मुनिबूंद जगत जसु गायउ॥३८॥

 

इस प्रकार विप्र-भय-मोचन श्रीरामचन्द्रजी मार्गके लोगोंके मन और नेत्रोंको सफल करते कौशिकमुनिके आश्रममें गये॥३७॥ वहाँ राक्षसोंके समूहका नाश करके विश्वामित्रजीका यज्ञ पूर्ण करवाया और मुनिसमूहको निर्भय किया। भगवान्के इस सुयशको सारे संसारने गाया ॥३८॥

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