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गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल

जानकी मंगल

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 908
आईएसबीएन :81-293-0503-8

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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....

राउ कहेउ कर जोर सुबचन सुहावन।
भयउ कृतारथ आजु देखि पद पावन॥२१॥
तुम्ह प्रभु पूरन काम चारि फलदायक।
तेहिं तें बूझत काजु डरौं मुनिनायक ॥२२॥

 

तब महाराजने हाथ जोड़कर सुन्दर सुहावने शब्दों में कहा-'आज
आपके पवित्र चरणोंको देखकर मैं कृतार्थ हो गया' ॥२१॥ हे प्रभु! आप पूर्णकाम हैं और चारों फल (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष)-के देनेवाले हैं, इसीसे हे मुनिनायक! मैं आपसे कोई सेवा पूछते हुए डरता हूँ॥२२॥

 

कौसिक सुनि नृप बचन सराहेउ राजहि।
धर्म कथा कहि कहेउ गयउ जेहि काजहि॥२३॥
जबहिं मुनीस महीसहि काजु सुनायउ।
भयउ सनेह सत्य बस उतरु न आयउ॥२४॥

 

कौशिकमुनि ने राजाका वचन सुन उनकी प्रशंसा की और धर्मकथा कहकर जिस कामके लिये गये थे, वह कहा ॥२३॥ जब मुनीश्वरने महाराजको अपना कार्य सुनाया, तब महाराज स्नेह और सत्यके बन्धनसे जडीभूत हो गये, उनसे कुछ भी उत्तर देते न बना॥२४॥

 

दो०-आयउ न उतरु बसिष्ठ लखि बहु भाँति नृप समझायऊ।
कहि गाधिसुत तप तेज कछु रघुपति प्रभाउ जनायऊ॥
धीरज धरेउ सुर बचन सुनि कर जोरि कह कोसल धनी।
करुना निधान सुजान प्रभु सो उचित नहिं बिनती घनी ॥३॥

 

महाराजसे उत्तर देते नहीं बनता-यह देखकर वसिष्ठजीने अनेक प्रकारसे राजाको समझाया। उन्होंने इधर तो विश्वामित्रजीके तप और तेजका वर्णन किया और उधर कुछ श्रीरामचन्द्रजीका प्रभाव समझाया। गुरुजीके वचन सुनकर महाराजने धैर्य धारण किया और फिर कोसलेश्वर महाराज दशरथने हाथ जोड़कर कहा-'प्रभो! आप दयासागर और सारी परिस्थितिसे अभिज्ञ हैं; अतः आपके सामने बहुत विनय करना उचित नहीं है।।३॥

 

नार्थ मोहि बालकन्ह सहित पुर परिजन।
राखनिहार तुम्हार अनुग्रह घर बन॥२५॥
दीन बचन बहु भाँति भूप मुनि सन कहे।
सौंप रोम अरु लखन पाय पंकजं गहे॥२६॥

 

हे नाथ! घर और वनमें नगर और नगरवासियोंके सहित मेरी और इन बालकोंकी रक्षा करनेवाली तो आपकी कृपा ही है ॥२५॥ इस प्रकार महाराजने मुनिसे अनेक प्रकारके दीन वचन कहे और श्रीरामचन्द्र एवं लक्ष्मणजीको उन्हें सौंपकर उनके चरण-कमल पकड़ लिये ॥२६॥

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