गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल जानकी मंगलहनुमानप्रसाद पोद्दार
|
3 पाठकों को प्रिय 313 पाठक हैं |
जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....
विश्वामित्रजी की राम-भिक्षा
गाधि सुवन तेहि अवसर अवध सिधायउ।
नृपति कीन्ह सनमान भवन लै आयउ॥१५॥
पूजि पहुनई कीन्ह पाइ प्रिय पाहुन।
कहेउ भूप मोहि सरिस सुकृत किए काहु न॥१६॥
नृपति कीन्ह सनमान भवन लै आयउ॥१५॥
पूजि पहुनई कीन्ह पाइ प्रिय पाहुन।
कहेउ भूप मोहि सरिस सुकृत किए काहु न॥१६॥
उसी समय विश्वामित्रजी अयोध्यापुरी गये। महाराजने उनका बड़ा आदर किया और उन्हें घर ले आये ॥ १५ ॥ अपने प्रिय पाहुनेको पाकर राजा दशरथने उनकी पूजा करके खूब पहुनाई की और कहा कि हमारे समान किसीने पुण्य नहीं किया' (जिसके प्रभावसे हमें आपको दर्शन हुआ) ॥१६॥
दो०-काहूँ न कीन्हेउ सुकृत सुनि मुनि मुदित नृपहि बखानहीं।
महिपाल मुनि को मिलन सुख महिपाल मुनि मन जानहीं॥
अनुराग भाग सोहाग सील सरूप बहु भूषन भरीं।
हिय हरषि सुतन्ह समेत रान आइ रिषि पायन्ह परीं ॥२॥
महिपाल मुनि को मिलन सुख महिपाल मुनि मन जानहीं॥
अनुराग भाग सोहाग सील सरूप बहु भूषन भरीं।
हिय हरषि सुतन्ह समेत रान आइ रिषि पायन्ह परीं ॥२॥
महाराजने कहा कि 'हमारे समान किसीने पुण्य नहीं किया।' यह बात सुनकर मुनिने प्रसन्न हो महाराजकी बड़ाई की। उस समय महाराज और मुनिके मिलन-सुखको महाराज और मुनिका मन ही जानता था। प्रेम, भाग्य, सौभाग्य, शील, सुन्दरता और बहुत-से आभूषणों से भरी हुई रानियाँ हृदयसे आनन्दित हो अपने पुत्रोंसहित ऋषिके पैरों पर पड़ीं ॥२॥
ौसिक दीन्हि असीस सकल प्रमुदित भईं।
सींचीं मनहुँ सुधा रस कलप लता नईं ॥१७॥
रामहि भाइन्ह सहित जबहिं मुनि जोहेउ।
नैन नीर तन पुलक रूप मन मोहेउ॥१८॥
सींचीं मनहुँ सुधा रस कलप लता नईं ॥१७॥
रामहि भाइन्ह सहित जबहिं मुनि जोहेउ।
नैन नीर तन पुलक रूप मन मोहेउ॥१८॥
िश्वामित्रजीने उन्हें आशीर्वाद दिया। इससे वे सब अत्यन्त प्रसन्न हुईं, मानो उन्होंने नवीन कल्पलताओंको अमृतरससे सींच दिया हो॥१७॥ जिस समय मुनिने भाइयोंके सहितं श्रीरामचन्द्रजीको देखा, तब उनके नेत्रोंमें जल भर आया, शरीर पुलकित हो गया और मन मोहित हो गया ॥१८॥
परसि कमल कर सीस हरषि हियँ लावहिं।
प्रेम पयोधि मगन मुनि पार न पावहिं॥१९॥
मधुर मनोहर मूरति सादर चाहहिं।
बार बार दसरथके सुकृत सराहहिं ॥२०॥
प्रेम पयोधि मगन मुनि पार न पावहिं॥१९॥
मधुर मनोहर मूरति सादर चाहहिं।
बार बार दसरथके सुकृत सराहहिं ॥२०॥
वे अपने करकमलसे श्रीरामचन्द्रजीके मस्तकका स्पर्श करते हैं और हर्षित होकर उन्हें हृदयसे लगाते हैं। इस समय मुनिवर प्रेम-सागरमें डूब जाते हैं। उसकी थाह नहीं पाते ॥१९॥ वे आदरपूर्वक उनकी मधुरमनोहर मूर्तिको देख रहे हैं और बार-बार महाराज दशरथके पुण्यकी सराहना करते हैं ॥२०॥
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book