गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल जानकी मंगलहनुमानप्रसाद पोद्दार
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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....
रूप सील बय बंस विरुद बल दल भले।
मनहुँ पुरंदर निकर उतरि अवनिहिं चले।।9।।
दानव देव निसाचर किंनर अहिगन।
सुनि धरि-धरि नृप बेष चले प्रमुदित मन।।10।।
मनहुँ पुरंदर निकर उतरि अवनिहिं चले।।9।।
दानव देव निसाचर किंनर अहिगन।
सुनि धरि-धरि नृप बेष चले प्रमुदित मन।।10।।
वे सुन्दरता, शील, आयु, कुल की बड़ाई, बल और सेना से सुसज्जित होकर चले, मानो इन्द्रों का यूथ ही पृथ्वी पर उतरकर जा रहा हो ।।9।। दैत्य, देवता, राक्षस किन्नर और नागगण भी स्वयंवर का समाचार सुन राजवेष धारण कर-करके प्रसन्नचित्त से चले।।10।।
एक चलहिं एक बीच एक पुर पैठहिं।
एक धरहिं धनु धाय नाइ सिरु बैठहिं।।11।।
रंग भूमि पुर कौतुक एक निहारहिं।
ललकि सुभाहिं नयन मन फेरि न पावहिं।।12।।
एक धरहिं धनु धाय नाइ सिरु बैठहिं।।11।।
रंग भूमि पुर कौतुक एक निहारहिं।
ललकि सुभाहिं नयन मन फेरि न पावहिं।।12।।
कोई चल रहे हैं, कोई मार्ग के बीच में हैं, कोई नगर में घुस रहे हैं और कोई दौड़कर धनुष को पकड़ते हैं और फिर सिर नीचा करके- लज्जित हो बैठ जाते हैं (क्योंकि उनसे धनुष टस-से-मस नहीं होता) ।। 11 ।। कोई रंगभूमि और नगर की सजावट बड़े चाव से देखते हैं और बड़े भले जान पड़ते हैं, वे अपने मन और नयनों को वहाँ से फेर नहीं पाते।।12।।
जनकहि एक सिहाहिं देखि सनमानत।
बाहर भीतर भीर न बनै बखानत॥१३॥
गान निसाने कोलाहल कौतुक जहँ तहँ।
सीय-बिबाह उछाह जाइ कहि का पहँ॥१४॥
बाहर भीतर भीर न बनै बखानत॥१३॥
गान निसाने कोलाहल कौतुक जहँ तहँ।
सीय-बिबाह उछाह जाइ कहि का पहँ॥१४॥
कोई राजा जनकको अतिथियोंका सम्मान करते देखकर उनसे ईर्ष्या करते हैं। इस समय बाहर-भीतर सर्वत्र इतनी भीड़ हो रही है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता ॥१३॥ जहाँ-तहाँ गान और नगारोंका कोलाहुल एवं चहल-पहल हो रही है। भला जानकीजीके विवाहका आनन्द किससे कहा जा सकता है॥१४॥
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