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गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल

जानकी मंगल

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 908
आईएसबीएन :81-293-0503-8

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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....

स्वयंवर की तैयारी

 

सुभ दिन रच्यौ स्वयंबर मंगलदायक।
सुनत श्रवन हिय बसहिं सीय रघुनायक।।3।।
देस सुहावन पावन बेद बखानिय।
भूमि तिलक सम तिरहुति त्रिभुवन जानिय।।4।।

 

पृथ्वी का तिलक स्वरूप और तीनों लोकों में विख्यात जो परम पवित्र शोभाशाली और वेदविदित तिरहुत देश है, वहाँ एक अच्छे दिन श्रीजानकी का मंगलप्रद स्वयंवर रचा गया, जिसका श्रवण करने से श्रीराम और सीताजी हृदय में बसते हैं।।3-4।।

 

तहँ बस नगर जनकपुर परम उजागर।
सीय लच्छि जहँ प्रगटी सब सुख सागर।।5।।
जनक नाम तेहिं नगर बसै नरनायक।
सब गुन अवधि न दूसरे पटतर लायक।।6।।

 

वहाँ (तिरहुत देश में) जनकपुर नामक एक प्रसिद्ध नगर बसा हुआ था, जिसमें सुखों की समुद्र लक्ष्मी स्वरूपा श्रीजानकीजी प्रकट हुई थीं।।5।। उस नगर में जनक नाम के एक राजा निवास करते थे, जो सारे गुणों की सीमा थे, और जिनके समान कोई दूसरा नहीं था।।6।।

 

भयउ न होइहि है न जनक सम नरवइ।
सीय सुता भइ जासु सकल मंगलमइ।।7।।
नृप लखि कुँअरि सयानि बोलि गुर परिजन।
करि मत रच्यौ स्वयंबर सिव धनु धरि पन।।8।।

 

जनक के सामन नरपति न हुआ, न होगा, न है; जिनकी पुत्री सर्वमंगलमयी जानकीजी हुईं।।7।। राजा ने राजकुमारी को वयस्क होते देख अपने गुरु और परिवार के लोगों को बुलाकर सलाह की और शिव-धनुष को शर्त के रूप में रखकर स्वयंवर रचा। (अर्थात् यह शर्त रखकर स्वयंवर रचा कि जो शिवजी का धनुष चढ़ा देगा, वही कन्या से विवाह करेगा) ।।8।।

 

 

दो०-पनु धरेउ सिव धनु रचि स्वयंबर अति रुचिर रचना बनी।
जनु प्रगटि चतुरानन देखाई चतुरता सब आपनी।।
पुनि देस देस सँदेस पठयउ भूप सुनि सुख पावहीं।
सब साजि साजि समाज राजा जनक नगरहिं आवहीं।।1।।

 

राजा ने शिव-धनुष चढ़ाने की शर्त रखकर स्वयंवर रचा, जिसकी सजावट अत्यन्त सुन्दर थी, मानो ब्रह्मा ने अपना सम्पूर्ण कौशल प्रत्यक्ष करके दिखा दिया। फिर देश-देश में समाचार भेजा गया, जिसे सुनकर राजालोग प्रसन्न हुए और वे सब-के-सब अपना साज सजा-सजाकर जनकपुर में आये।।1।।

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