गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल जानकी मंगलहनुमानप्रसाद पोद्दार
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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....
कहि प्रिय बचन सखिन्ह सन रानि बिसूरति।
कहाँ कठिन सिव धनुष कहाँ मृदु मूरति॥७३॥
जौं बिधि लोचन अतिथि करत नहिं रामहि।
तौ कोउ नृपहि न देत दोषु परिनामहि॥७४॥
कहाँ कठिन सिव धनुष कहाँ मृदु मूरति॥७३॥
जौं बिधि लोचन अतिथि करत नहिं रामहि।
तौ कोउ नृपहि न देत दोषु परिनामहि॥७४॥
सखियोंसे प्रिय वचन कहकर रानी सोचने लगीं कि कहाँ शिवजीका (कठोर) धनुष और कहाँ यह सुकुमार मूर्ति ॥७३॥ यदि विधाता, श्रीरामचन्द्रजीको हमारे नेत्रोंका अतिथि न बनाता तो अन्तमें राजाका कोई दोष न देता ॥७४।।
अब असमंजस भयउ न कछु कहि आवै।
रानिहि जानि ससोच सखी समझावै॥७५॥
देबि सोच परिहरिय हरष हियँ आनिय।
चाप चढ़ाउब राम बचन फुर मानिय॥७६॥
रानिहि जानि ससोच सखी समझावै॥७५॥
देबि सोच परिहरिय हरष हियँ आनिय।
चाप चढ़ाउब राम बचन फुर मानिय॥७६॥
'अब तो असमंजसकी बात हो गयी, कुछ कहते नहीं बनता।' इस प्रकार रानीको सोचवश जानकर सखियाँ समझाने लगीं-'हे देवि! सोचको त्याग दीजिये। हृदयमें आनन्द मनाइये। यह वचन सत्य मानिये कि धनुषको श्रीरामचन्द्रजी ही चढ़ायेंगे॥७५-७६॥
तीनि काल को ग्यान कौसिकहि करतल।
सो कि स्वयंबर आनिहिं बालक बिनु बल॥७७॥
मुनि महिमा सुनि रानिहि धीरजु आयउ।
तब सुबाहु सूदन जसु सखिन्ह सुनायउ॥७८॥
सो कि स्वयंबर आनिहिं बालक बिनु बल॥७७॥
मुनि महिमा सुनि रानिहि धीरजु आयउ।
तब सुबाहु सूदन जसु सखिन्ह सुनायउ॥७८॥
‘कौसिक मुनिको तीनों कालका ज्ञान करतलगत है, क्या वे बिना किसी बलके इन बालकोंको स्वयंवरमें लाते ?'॥७७॥ मुनिकी महिमा सुनकर रानीको धैर्य हुआ। तब सखियोंने रानीको सुबाहुका वध करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीका यश सुनाया ॥७८॥
सुनि जिये भयउ भरोस रानि हिय हरषइ।
बहुरि निरखि रघुबरहि प्रेम मन करषइ॥७९॥
नृप रानी पुर लोग राम तन चितवहिं।
मंजु मनोरथ कलस भरहिं अरु रितवहिं॥८०॥
बहुरि निरखि रघुबरहि प्रेम मन करषइ॥७९॥
नृप रानी पुर लोग राम तन चितवहिं।
मंजु मनोरथ कलस भरहिं अरु रितवहिं॥८०॥
यह सुनकर रानीके जीमें भरोसा आया और वे हर्षित हो गयीं। फिर उन्होंने रघुनाथजीकी ओर देखा, इससे उनका मन प्रेमसे आकर्षित हो गया॥७९॥ राजा, रानी और पुरवासीलोग श्रीरामचन्द्रजीकी ओर देख रहे हैं। वे बार-बार मनोहर मनोरथरूपी कलश भरते हैं और उसे खाली कर देते हैं (अर्थात् आशा और निराशाके झूलेमें झूल रहे हैं)॥८०॥
दो०-रितवहिं भरहिं धनुनिरखि छिनु-छिनु निरखि रामहि सोचहीं।
नर नारि हरष बिषाद बस हिय सकल सिवहिं सकोचहीं॥
तब-जनक आयसु पाइ कुलगुर जानकिहि लै आयऊ।
सिय रूप रासि निहारि लोचन लाहु लोगन्हि पायऊ॥१०॥
नर नारि हरष बिषाद बस हिय सकल सिवहिं सकोचहीं॥
तब-जनक आयसु पाइ कुलगुर जानकिहि लै आयऊ।
सिय रूप रासि निहारि लोचन लाहु लोगन्हि पायऊ॥१०॥
धनुषको देखकर वे क्षण-क्षणमें मनोरथरूपी कलशको भरते और खाली करते हैं और श्रीरामचद्रजीको देखकर सोच करते हैं; समस्त स्त्रीपुरुष हर्ष और विषादवश हृदयमें शिवजीको संकुचित करते हैं (अर्थात् प्रार्थना करके उनसे यह मनाते हैं कि श्रीरामचन्द्रजी उन्हींका धनुष तोड़नेमें समर्थ हों) तब महाराज जनककी आज्ञा पाकर कुलगुरु शतानन्दजी जानकीजीको ले आये। उस समय रूपराशि श्रीजानकीजीको देखकर सब लोगोंने नेत्रोंका फल पाया ॥१०॥
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