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गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल

जानकी मंगल

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 908
आईएसबीएन :81-293-0503-8

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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....

 

मंगल भूषन बसन मंजु तन सोहहिं।
देखि मूढ महिपाल मोह बस मोहहिं॥८१॥
रूप रासि जेहि ओर सुभायँ निहारई।
नील कमल सर श्रेनि मयन जनु डारइ॥८२॥

 

श्रीजानकीजीके सुन्दर शरीरमें मंगलमय (विवाहोचित) वस्त्र और आभूषण सुशोभित हैं। उन्हें देखकर मूर्ख राजालोग मोहवश मोहित हो जाते हैं॥८१॥ रूपकी राशि श्रीजानकीजी जिस ओर स्वभावसे ही निहारती हैं, उसी ओर मानो कामदेव नील कमलके बाणोंकी झड़ी लगा देता है ॥८२।।

 

छिनु सीतहि छिनु रामहि पुरजन देखहिं।
रूप सील बय बंस बिसेष बिसेषहिं॥८३॥
राम दीख जब सीय सीय रघुनायक।
दोउ तन तकि तकि मयन सुधारत सायक॥८४॥

 

पुरवासीलोग एक क्षण जानकीजीको और दूसरे क्षण श्रीरामचन्द्रजीको निहारते हैं। वे उनके रूप, शील, अवस्था और वंशकी विशेषताका विशेषरूपसे वर्णन करते हैं॥८३॥ जब श्रीरामचन्द्रजीको जानकीजीने और जानकीजीको श्रीरामचन्द्रजीने देखा, तब दोनोंकी ओर देख-देखकर कामदेव अपने बाण सुधारने लगा।।८४॥

 

प्रेम प्रमोद परस्पर प्रगटत गोपहिं।
जनु हिरदये गुन ग्राम थूनि थिर रोपहिं॥८५॥
राम सीय बय समौ सुभाय सुहावन।
नृप जोबन छबि पुरइ चहत जनु आवन॥८६॥

 

श्रीरामचन्द्रजी और जानकीजी परस्पर प्रकट होते हुए प्रेमानन्दको छिपाते हैं, मानो वे अपने हृदयमें एक-दूसरेके गुण-गणरूपी स्तम्भको स्थिरतापूर्वक गाड़ते हैं॥८५॥ श्रीरामचन्द्रजी और जानकीजीकी अवस्थाको समय भी स्वभावसे ही शोभायमान है, मानो इस समय यौवनरूपी राजा छबिरूपी नगरीमें प्रवेश करना चाहता है॥८६॥

 

सो छबि जाइ न बरनि देखि मनु मानै।
सुधा पान करि मूक कि स्वाद बखानै॥८७॥
तब बिदेह पन बंदिन्ह प्रगट सुनायउ।
उठे भूप आमरषि सगुन नहिं पायउ॥८८॥

 

उस शोभाका वर्णन नहीं किया जा सकता; उसे तो देखनेसे ही मन प्रसन्न होता है। क्या गूंगा अमृत-पान करके उसके स्वादको कह सकता है?॥८७॥ तब बंदीजनोंने महाराज जनककी शर्तको स्पष्ट करके सुनाया। उसे सुनकर राजालोग जोशमें आकर उठे, परंतु कोई शकुन नहीं बना॥८८॥

 

दो०-नहि सगुन पायउ रहे मिसु करि एक धनु देखने गए।
टकटोरि कपि ज्यों नारियरु, सिरु नाई सब बैठत भए॥
एक करहिं दाप, न चाप सज्जन बचन जिमि टारें टरै।
नृप नहुष ज्यों सब के बिलोकत बुद्धि बल बरबस हरै॥११॥

 

जब राजाओंको शुभ शकुन नहीं मिला, तब वे बहाना बनाकर बैठ गये। उनमेंसे कोई धनुष देखनेके लिये गये और जैसे बंदर नारियलको टटोलकर छोड़ देता है, वैसे ही वे सब धनुषको टटोलकर सिर नीचा करके बैठ गये। कोई-कोई बड़े जोशमें आते हैं, परंतु सत्पुरुषोंके वचनोंके समान धनुष टाले नहीं टलता। इस प्रकार राजा नहुषके समान* उनके बुद्धि और बल सबके देखते-देखते बरबस क्षीण हो गये ॥११॥
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* जब अपने पुण्यके प्रतापसे राजा नहुषको इन्द्रपद प्राप्त हुआ, तब उसके मदमें उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी। उन्होंने इन्द्राणीको भोगनेकी इच्छा प्रकट की और उसका संदेश पाकर ऋषियोंको शिविकामें जोड़कर चले। उनमें इस प्रकारके अनौचित्यका विचार करनेकी भी बुद्धि न रही। अन्तमें अगस्त्य ऋषिके शापसे वे तत्काल अजगर हो गये।
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