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गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल

जानकी मंगल

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 908
आईएसबीएन :81-293-0503-8

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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....

धनुर्भंग

 

देखि सपुर परिवार जनक हिय हारेउ।
नृप समाज जनुं तुहिन बनज बन मारेउ॥८९॥
कौसिक जनकहि कहेउ देहु अनुसासन।
देखि भानु कुल भानु इसानु सरासन ॥९०॥

 

पुरवासी एवं परिवारके सहित महाराज जनक यह देखकर हृदयमें हार गये अर्थात् निराश हो गये और राजाओंके समाजरूपी कमलवनको तो मानो पाला मार गया ॥८९॥ (तब) कौशिकमुनिने महाराज जनकसे कहा-'आप आज्ञा दीजिये। सूर्यकुलके सूर्य श्रीरामचन्द्रजी शंकरजीके धनुषको देखें ॥९०॥

 

मुनिबर तुम्हरें बचन मेरु महि डोलहिं।
तदपि उचित आचरत पाँच भल बोलहिं ॥९१॥
बानु बानु जिमि गयउ गवहिं दसकंधरु।
को अवनी तल इन सम बीर धुरंधरु॥९२॥

 

(महाराज जनकने कहा-) हे मुनिवर ! आपके वचनसे पर्वत और पृथ्वी भी डोल सकते हैं; तो भी उचित आचरण करनेसे सब लोग प्रशंसा करते हैं। (तात्पर्य यह कि यद्यपि आपके आशीर्वादसे श्रीरामके लिये यह धनुष तोड़ना कोई बड़ी बात नहीं है, फिर भी जैसी वस्तुस्थिति है, उसे देखते हुए तो ऐसा होना असम्भव ही जान पड़ता है; क्योंकि देखिये, इस धनुषको देखकर) बाणासुर बाणके समान भाग गया और रावण भी चुपकेसे (अपने घर) चला गया। भला इनके समान धुरंधर -वीर पृथ्वीतलमें कौन है॥९१-९२॥

 

पारबती मन सरिस अचल धनु चालक।
हहिं पुरारि तेउ एक नारि ब्रत पालक ॥९३॥
सो धनु कहिय बिलोकन भूप किंसोरहि।
भेद कि सिरिस सुमन कन कुलिस कठोरहि॥९४॥

 

'यह धनुष तो पार्वतीजीके मनके समान अचल है, इसे विचलित करनेवाले तो बस एक महादेवजी ही हैं, किंतु वे भी एकनारी व्रतका पालन करनेवाले हैं॥९३॥ ऐसे धनुषको आप इन राजकुमारको देखनेके लिये कहते हैं। भला, कहीं सिरसका अत्यन्त कोमल फूल कठोर वज्रके कणको भी भेद सकता है॥९४॥

 

रोम रोम छबि निंदतिं सोभ मनोजनि।
देखिय मूरति मलिन करिय मुनि सो जनि॥९५॥
मुनि हँसि कहेउ जनक यह मूरति सोहइ।
सुमिरत सकृत मोह मल सकल बिछोहइ॥९६॥

 

श्रीरामचन्द्रजीकी रोम-रोमकी शोभा अनेक कामदेवोंकी छबिका भी तिरस्कार करनेवाली है। हे मुने! ऐसा न कीजिये कि यह मूर्ति मलिन देखी जाय [क्योंकि यदि इनसे धनुष न टूटा तो इनकी यह प्रसन्नता नष्ट हो जायगी]'॥९५॥ मुनिने हँसकर कहा, हे जनक! यह मूर्ति जो शोभायमान हो रही है, वह एक बार स्मरण करनेसे भी सम्पूर्ण अज्ञानान्धकारको दूर कर देनेवाली है॥९६॥

 

दो०-सब मल बिछोहनि जानि मूरति जनक कौतुक देखहू।
धनु सिंधु नृप बले जल बढ्यो रघुबरहि कुंभज लेखहू॥
सुनि सकुचि सोचहिं जनक गुर पद बंदि रघुनंदन चले।
नहिं हरष हृदय बिषाद कछु भए सगुन सुभ मंगल भले॥१२॥

 

‘हे जनक! इस मूर्तिको सब प्रकारके मलोंको छुड़ानेवाली जानकर यह कौतुक देखो। धनुषरूपी समुद्रमें राजाओंका बलरूपी जल बढ़ा हुआ है, [उसे सुखानेके लिये] रघुनाथजीको अगस्त्यके समान जानो।' यह सुनकर राजा -जनक सकुचाकर सोचने लगे और [उधर] श्रीरामचन्द्रजी गुरुके चरणोंको प्रणाम करके चले। इस समय उनके हृदयमें हर्ष या विषाद कुछ भी नहीं था। [उनके चलते समय] बहुत-से शुभ और कल्याणसूचक अच्छे शकुन हुए ॥१२॥
 
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