गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल जानकी मंगलहनुमानप्रसाद पोद्दार
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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....
बरिसन लगे सुमन सुर दुंदुभि बाजहिं।
मुदित जनक, पुर परिजन नृपगन लाजहिं॥९७॥
महि महिधरनि लखन कहं बलहि बढ़ावनु।
राम चहंत सिव चापहि चपरि चढ़ावनु॥९८॥
मुदित जनक, पुर परिजन नृपगन लाजहिं॥९७॥
महि महिधरनि लखन कहं बलहि बढ़ावनु।
राम चहंत सिव चापहि चपरि चढ़ावनु॥९८॥
देवतालोग फूल बरसाने और नगारे बजाने लगे; राजा जनक, उनके परिवारके लोग तथा पुरवासी आनन्दित हो गये और राजालोग लजा गये॥९७॥ लक्ष्मणजी पृथ्वी और शेषादिसे बल बढ़ानेके लिये कहते हैं; क्योंकि अब शीघ्र ही श्रीरामचन्द्रजी शिवजीके धनुषको चढ़ाना चाहते हैं ॥९८॥
गए सुभायें राम जब चाप समीपहि।
सोच सहित परिवार-बिदेह महीपहि॥९९॥
कहि न सकति कछु सकुचति सिय हियँ सोचइ।
गौरि गनेस गिरीसहि सुमिरि सकोचइ॥१००॥
सोच सहित परिवार-बिदेह महीपहि॥९९॥
कहि न सकति कछु सकुचति सिय हियँ सोचइ।
गौरि गनेस गिरीसहि सुमिरि सकोचइ॥१००॥
जब श्रीरामचन्द्रजी सहज भावसे धनुषके समीप गये, तब परिवारसहित राजा जनक सोचमें पड़ गये ॥९९॥ संकोचवश जानकीजी कुछ कह नहीं पातीं, मन-ही-मन सोच करती हैं और पार्वती, गणेश तथा महादेवजीका स्मरण करके उन्हें संकोचमें डाल रही हैं॥१००॥
होत बिरह सर मगन देखि रघुनाथहि।
फरकि बाम भुज नयन देत जनु हाथहि॥१०१॥
धीरज धरति सगुन बल रहति सो नाहिन।
बरु किसोर धनु घोर दइउ नहिं दाहिन॥१०२॥
फरकि बाम भुज नयन देत जनु हाथहि॥१०१॥
धीरज धरति सगुन बल रहति सो नाहिन।
बरु किसोर धनु घोर दइउ नहिं दाहिन॥१०२॥
श्रीरामचन्द्रजीको देखकर वे विरहके सरोवरमें डूब रही हैं। उस समय उनके बाम भुजा और नेत्र फड़ककर मानो डूबनेसे बचानेके लिये हाथ बढ़ाते हैं॥१०१॥ इस प्रकार शकुनकै बलसे कुछ धीरज धरती हैं; परंतु वह स्थिर नहीं रहता। [वे सोचने लगती हैं कि] 'वर तो किशोरावस्थाके हैं और धनुष विकराल है। इस समय विधाता भी अनुकूल नहीं है' ॥१०२॥
अंतरजामी राम मरम सब जानेउ।
धनु चढ़ाई कौतुकहिं कान लगि तानेउ॥१०३॥
प्रेम परखि रघुबीर सरासन भंजेउ।
जनु मृगराज किसोर महागज भंजेउ॥१०४॥
धनु चढ़ाई कौतुकहिं कान लगि तानेउ॥१०३॥
प्रेम परखि रघुबीर सरासन भंजेउ।
जनु मृगराज किसोर महागज भंजेउ॥१०४॥
अन्तर्यामी श्रीरामचन्द्रजीने जानकीजीका सारा मर्म जान लिया (अर्थात् वे श्रीजानकीजीके मनका दुःख समझ गये)। बस उन्होंने कौतुकसे ही धनुषको चढ़ाकर कानतक ताम लिया ॥१०३॥ श्रीजानकीजीके, प्रेमको परखकर श्रीरामचन्द्रजीने धनुषको उसी प्रकार तोड़ दिया, जैसे कोई सिंहका बच्चा बड़े भारी हाथीको मार डाले॥१०४॥
दो०-गंजेउ-सो गर्जेउ घोर धुनि सुनि भूमि भूधर लरखरे।
रघुबीर जस मुकता बिपुल सब भुवन पटु पेटक भरे॥
हित मुदित अनहित रुदित मुख छबि कहत कबि धनु जाग की।
जनु भोर चक्क चकोर कैरव सधन कमल तड़ाग की॥१३॥
रघुबीर जस मुकता बिपुल सब भुवन पटु पेटक भरे॥
हित मुदित अनहित रुदित मुख छबि कहत कबि धनु जाग की।
जनु भोर चक्क चकोर कैरव सधन कमल तड़ाग की॥१३॥
धनुषको जब तोड़ा गया, तब उसका ऐसा घोर गर्जन हुआ कि उसे सुनकर पृथ्वी और पर्वत डगमगा गये। श्रीरामचन्द्रजीके सुयशरूपी बहुतसे मोतियोंसे समस्त भुवन-मण्डलरूप सुन्दर पिटारे भर गये। (अर्थात् चौदहों भुवनमें उनका सुयश व्याप्त हो गया) इससे मित्र लोग आनन्दित हुए और शत्रुओंको मुख आँसा हो गया। उस समयकी धनुष-यज्ञकी छबिको कवि इस प्रकार वर्णन करता है कि प्रात:काल चकवा-चकवी, कुमुदिनी और सघन कमलवनसे युक्त तालाबकी जैसी शोभा होती है, वैसी ही उस यज्ञकी हुई (भाव यह कि शत्रुलोग तो चकोर और कुमुदिनियोंके समान निस्तेज हो गये और सत्पुरुष चकवा-चकवी एवं कमलवनके समान प्रफुल्लित हो गये)॥१३॥
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