गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल जानकी मंगलहनुमानप्रसाद पोद्दार
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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....
नभ पुर मंगल गान निसान गहगहे।
देखि मनोरथ सुरतरु ललित लहलहे॥१०५॥
तब उपरोहित कहेउ सखीं सब गावन।
चलीं लेवाइ जानकिहि भा मन भावन॥१०६॥
देखि मनोरथ सुरतरु ललित लहलहे॥१०५॥
तब उपरोहित कहेउ सखीं सब गावन।
चलीं लेवाइ जानकिहि भा मन भावन॥१०६॥
मनोरथरूपी सुन्दर कल्पवृक्षको लहलहाते देखकर नगर और आकाशमें आनन्दपूर्वक मंगल-गान और नगारोंका शब्द होने लगा।।१०५॥ तब पुरोहित (शतानन्दजी)-ने समस्त सखियोंको गानेकी आज्ञा दी और वे [गाती हुई] श्रीजानकीजीको लिवाकर चलीं। इस प्रकार जानकीजीका. मनमाना हो गया ॥१०६॥
कर कमलनि जयमाल जानकी सोहई।
बरनि सकै छबि अतुलित अस कबि कोहइ॥१०७॥
सीय सनेह सकुचे बस पिय तन हेरइ।
सुरतरु रुख सुरबेलि पवन जनु फेरइ॥१०८॥
बरनि सकै छबि अतुलित अस कबि कोहइ॥१०७॥
सीय सनेह सकुचे बस पिय तन हेरइ।
सुरतरु रुख सुरबेलि पवन जनु फेरइ॥१०८॥
जानकीजीके करकमलोंमें जयमाला शोभा दे रही है; भला ऐसा कौन कवि है, जो उस अतुलित छबिका वर्णन कर सके॥१०७॥ जानकीजी प्रेम और संकोचवश प्रियतमकी ओर देखती हैं, मानो वायु कल्पलताको कल्पवृक्षकी ओर घुमा रहा है॥१०८॥
लसत ललित कर कमल माल पहिरावत।
काम फंद जनु चंदहि बनज फैंसावत ॥१०९॥
राम सीय छबि निरुपम निरुपम सो दिनु।
सुख समाज लखि रानिन्ह आनँद छिनु-छिनु॥११०॥
काम फंद जनु चंदहि बनज फैंसावत ॥१०९॥
राम सीय छबि निरुपम निरुपम सो दिनु।
सुख समाज लखि रानिन्ह आनँद छिनु-छिनु॥११०॥
जयमाल पहनाते समय उनके सुन्दर करकमल ऐसे सुशोभित जान पड़ते हैं मानो कमल कामदेवके फंदेमें चन्द्रमाको फँसाते हों।।१०९॥ श्रीराम और जानकीजीकी अनुपम शोभा और वह दिन भी अनुपम था। उस सुख-समाजको देखकर रानियोंको क्षण-क्षणमें आनन्द हो रहा था।।११०॥
प्रभुहि माल पहिराइ जानकिहि लै चलीं।
सखीं मनहुँ बिधु उदय मुदित कैरव कल ॥१११॥
बरषहिं बिबुध प्रसून हरषि कहि जय जए।
सुख सनेह भरे भुवन राम गुर पहँ गए॥११२॥
सखीं मनहुँ बिधु उदय मुदित कैरव कल ॥१११॥
बरषहिं बिबुध प्रसून हरषि कहि जय जए।
सुख सनेह भरे भुवन राम गुर पहँ गए॥११२॥
श्रीरामचन्द्रजीको माला पहनाकर सखियाँ जानकीजीको लिवा चलीं; वे ऐसी प्रफुल्लित हो रही हैं जैसे चन्द्रमाका उदय होनेसे कुमुदिनीकी कलियाँ खिलं उठती हैं॥१११॥ देवता लोग आनन्दित होकर जयजयकार करते हुए फूल बरसाते हैं। उस समय सारे भुवन सुख और स्नेहसे भरे हुये श्रीरामचन्द्रजी गुरुके पास गये॥११२॥
दो०-गए राम गुरु पहिं राउ रानी नारि-नर आनंद भरे।
जनु तृषित करि करिनी निकर सीतल सुधासागर परे॥
कौसिकहि पूजि प्रसंसि आयसु पाई नृप सुख पायऊ।
लिखि लगन तिलक समाज सजि कुल गुरहि अवध पठायऊ॥१४॥
जनु तृषित करि करिनी निकर सीतल सुधासागर परे॥
कौसिकहि पूजि प्रसंसि आयसु पाई नृप सुख पायऊ।
लिखि लगन तिलक समाज सजि कुल गुरहि अवध पठायऊ॥१४॥
राजा-रानी, स्त्री-पुरुष-सब उसी प्रकार आनन्दसे भर गये, मानो म्यासे हाथी-हथिनियोंका झुंड शीतल अमृतं-सागरमें जा गिरा हो। कौशिकमुनिकी पूजा और प्रशंसा करके उनकी आज्ञा पा राजा सुखी हुए तथा लग्न लिखकर तिलककी सामग्री सजा अपने कुलगुरु (शतानन्दजी)-को अयोध्या भेजा॥१४॥
गुनि गन बोलि कहेउ नृप माँडव छावन।
गावहिं गीत सुआसिनि बाज बधावन॥११३॥
सीय राम हित पूजहिं गौरि गनेसहि।
परिजन पुरजन सहित प्रमोद नरेसहि॥११४॥
गावहिं गीत सुआसिनि बाज बधावन॥११३॥
सीय राम हित पूजहिं गौरि गनेसहि।
परिजन पुरजन सहित प्रमोद नरेसहि॥११४॥
राजाने गुणी लोगोंको बुलाकर मण्डप छानेकी आज्ञा दी। सुवासिनियाँ (सुहागिनी लड़कियाँ) गीत गाने लगीं और बधावा बजने लगा ॥११३॥ श्रीरामचन्द्रजी और जानकीजीके लिये वे गौरी और गणेशकी पूजा करती हैं। [इस प्रकार] सभी परिवारके लोगों एवं पुरजनोंके सहित राजाको परम आनन्द हो रहा है॥११४॥
प्रथम हरदि बंदन करि मंगल गावहिं।
करि कुल रीति कलस थपि तेलु चढ़ावहिं॥११५॥
करि कुल रीति कलस थपि तेलु चढ़ावहिं॥११५॥
पहले हरिद्रा-वन्दन करके अर्थात् हल्दी चढ़ाकर मंगल-गान करती हैं और कुलकी रीति करके कलश स्थापन कर तेल चढ़ाती हैं ॥११५॥
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