लोगों की राय

गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल

जानकी मंगल

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 908
आईएसबीएन :81-293-0503-8

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

313 पाठक हैं

जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....

 

गे जनवासहिं कौसिक राम लखन लिए।
हरषे निरखि बरात प्रेम प्रमुदित हिए॥१२१॥
हृदयँ लाई लिए गोद मोद अति भूपहि।
कहि न सकहिं सत सेष अनंद अनूपहि॥१२२॥

 

कौशिकमुनि श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजीको साथ लिये जनवासेमें गये और बरातको देखकर अति आनन्दित हुए, उनका हृदय प्रेमसे - प्रफुल्लित था॥१२१॥ महाराजने श्रीराम और लक्ष्मणको हृदयसे लगाकर गोदमें बिठा लिया। उस समय उन्हें अत्यन्त आनन्द हुआ। उस अनुपम आनन्दको सैकड़ों शेष भी वर्णन नहीं कर सकते॥१२२॥

 

रायँ कौसिकहि पूजि दान बिप्रन्ह दिए।
राम सुमंगल हेतु सकल मंगल किए॥१२३॥
ब्याह बिभूषन भूषित भूषन भूषन।
बिस्व बिलोचन बनज बिकासक पूषन ॥१२४॥

 

महाराज दशरथने कौशिकमुनिकी पूजा करके ब्राह्मणोंको दान दिये और श्रीरामचन्द्रजीके कल्याणके लिये सब प्रकारके मांगलिक कृत्य किये। जो संसारके नेत्ररूपी कमलोंको विकसित करनेवाले सूर्यके समान हैं। वे भूषणोंके भूषण श्रीरामचन्द्रजी विवाह के आभूषणोंसे भूषित हैं॥१२३-१२४॥

 

मध्य बरात बिराजत अति अनुकूलेउ।
मनहुँ काम आराम कलपतरु फूलेउ॥१२५॥
पठई भेंट बिदेह बहुत बहु भाँतिन्ह।
देखत देव सिहाहिं अनंद बरातिन्ह॥१२६॥

 

वे बरातके मध्यमें अत्यन्त प्रसन्न चित्तसे सुशोभित हैं, ऐसा जान पड़ता है, मानो कामदेवके बागमें कल्पवृक्ष फूला हुआ हो॥१२५॥ महाराज जनकने अनेक प्रकारके बहुत-से उपहार भेजे, जिन्हें देखकर देवता (भी) ईर्ष्या करते हैं और बरातियोंको भी बड़ा आनन्द होता है॥१२६॥
 
<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book