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गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल

जानकी मंगल

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 908
आईएसबीएन :81-293-0503-8

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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....

राम-विवाह

 

बेद बिहित कुलरीति कीन्हि दुहुँ कुलगुर।
पठई बोलि बरात जनक प्रमुदित मन ॥१२७॥
जाइ कहेउ पगु धारिअ मुनि अवधेसहि।
चले सुमिरि गुरु गौरि गिरीस गनेसहि॥१२८॥

 

वसिष्ठजी और शतानन्दजी दोनों कुलगुरुओंने वेदविहित कुलरीति सम्पन्न की तथा महाराज जनकने प्रमुदित मनसे बरातको बुला भेजा ॥१२७॥ [तब] शतानन्दमुनिने [जनवासेमें] जाकर अयोध्यापति (महाराज दशरथ)- से कहा-'पधारिये' और वे गुरु (वसिष्ठ), गौरी, शिवजी और गणेशजीको स्मरणकर चले ।।१२८॥

 

दो०-चले सुमिरि गुर सुर सुमन बरषहिँ परे बहुबिधि पावड़े।
सनमानि सब बिधि जनक दसरथ किये प्रेम कनावड़े॥
गुन सकल सम समधी परस्पर मिलन अति आनँद लहे।
जय धन्य जय जय धन्य धन्य बिलोकि सुर नर मुनि कहे॥१६॥

 

महाराज दशरथ गुरु आदिको स्मरणकर चले; देवतालोग फूल बरसाने लगे और अनेक प्रकारके पाँवड़े पड़ने लगे। महाराज जनकने सब प्रकारसे सम्मानित कर श्रीदशरथजीको अपने प्रेमसे कृतज्ञ बना लिया। सब गुणोंमें तुल्य दोनों समधियोंने परस्पर मिलते समय अत्यन्त आनन्द प्राप्त किया। उन्हें देखकर देवता, मनुष्य और मुनिजन धन्य-धन्य कहते और जय-जयकार कर रहे हैं ॥१६॥
 
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