गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल जानकी मंगलहनुमानप्रसाद पोद्दार
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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....
देत अरघ रघुबीरहि मंडप लै चलीं।
करहिं सुमंगल गान उमगि आनँद अलीं ॥१३७॥
बर बिराज मंडप महँ बिस्व बिमोहइ।
ऋतु बसंत बन मध्य मदनु जनु सोहइ॥१३८॥
करहिं सुमंगल गान उमगि आनँद अलीं ॥१३७॥
बर बिराज मंडप महँ बिस्व बिमोहइ।
ऋतु बसंत बन मध्य मदनु जनु सोहइ॥१३८॥
[फिर जानकीजीकी कुछ] सखियाँ श्रीरामचन्द्रजीको अर्घ्य देती हुई मण्डपमें लिवा चलीं। वे आनन्दमें उसँगकर मनोहर मंगलगान करती हैं॥१३७॥ दूल्हा राम मण्डपमें विराजमान हो संसारको विशेषरूपसे मोहित कर रहे हैं; वे ऐसे भले लगते हैं, मानो वसन्त-ऋतु कामदेव वनके मध्यमें शोभायमान हैं॥१३८॥
कुल बिबहार बेद बिधि चाहिय जहँ जस।
उपरोहित दोउ करहिं मुदित मन तहँ तस॥१३९॥
बरहि पूजि नृप दीन्ह सुभग सिंहासन।
चलीं दुलहिनिहि ल्याई पाइ अनुसासन॥१४०॥
उपरोहित दोउ करहिं मुदित मन तहँ तस॥१३९॥
बरहि पूजि नृप दीन्ह सुभग सिंहासन।
चलीं दुलहिनिहि ल्याई पाइ अनुसासन॥१४०॥
जहाँ जिस प्रकारकी वैदिक विधि और कुल-व्यवहारकी आवश्यकता होती है, वहाँ दोनों पुरोहित प्रसन्न-मनसे वैसा ही करते हैं ॥१३९॥ राजा जनकने वरका पूजन करके सुन्दर सिंहासन दिया और सखियाँ आज्ञा पा दुलहिनको लेकर चलीं ॥१४०।।
जुबति जुत्थ महँ सीय सुभाइ बिराजइ।
उपमा कहत लजाइ भारती भाजई॥१४१॥
दुलह दुलहिनिन्ह देखि नारि नर हरषहिं।
छिनु छिनु गान निसान सुमन सुर बरषहिं॥१४२॥
उपमा कहत लजाइ भारती भाजई॥१४१॥
दुलह दुलहिनिन्ह देखि नारि नर हरषहिं।
छिनु छिनु गान निसान सुमन सुर बरषहिं॥१४२॥
स्त्रियोंके झुंडमें जानकीजी स्वभावसे ही शोभा पा रही हैं। सरस्वती उपमा कहनेमें लजाकर भाग जाती हैं॥१४१।। दुलहा और दुलहिनको
देखकर स्त्री-पुरुष हर्षित होते हैं और क्षण-क्षणमें गीत गाते और नगारे बजाते हुए देवतालोग फूल बरसाते हैं॥१४२॥
देखकर स्त्री-पुरुष हर्षित होते हैं और क्षण-क्षणमें गीत गाते और नगारे बजाते हुए देवतालोग फूल बरसाते हैं॥१४२॥
लै लै नाउँ सुआसिनि मंगल गावहिं।
कुँवर कुँवरि हित गनपति गौरि पुजावहिं॥१४३॥
अगिनि थापि मिथिलेस कुसोदक लीन्हेउ।
कन्या दान बिधान संकलप कीन्हेउ॥१४४॥
कुँवर कुँवरि हित गनपति गौरि पुजावहिं॥१४३॥
अगिनि थापि मिथिलेस कुसोदक लीन्हेउ।
कन्या दान बिधान संकलप कीन्हेउ॥१४४॥
सुवासिनियाँ दूल्हा और दुलहिनको नाम ले-लेकर मंगल गाती हैं और कुमार-कुमारीके कल्याणके लिये [उनसे] गणेशजी तथा पार्वतीजीकी पूजा कराती हैं॥१४३॥ मिथिलापति (महाराज जनक)-ने अग्नि-स्थापन करके कुश और जल लिया तथा कन्या-दानकी विधिके लिये संकल्प किया॥१४४॥
दो०-संकल्पि सिय रामहि समरपी सील सुख सोभामई।
जिमि संकरहि गिरिराज गिरिजा हरिहि श्री सागर दई॥
सिंदूर बंदन होम लावा होन लागी भाँवरीं।
सिल पोहनी करि मोहनी मनहयो - मूरति साँवरीं ॥१८॥
जिमि संकरहि गिरिराज गिरिजा हरिहि श्री सागर दई॥
सिंदूर बंदन होम लावा होन लागी भाँवरीं।
सिल पोहनी करि मोहनी मनहयो - मूरति साँवरीं ॥१८॥
महाराज जनकने संकल्प करके शील, सुख और शोभामयी श्रीजानकीजी भगवान् रामको समर्पण कर दीं-[ठीक उसी तरह] जैसे गिरिराज हिमवान्ने शंकरजीको पार्वतीजी और सागरने भगवान् श्रीहरिको लक्ष्मीजी समर्पण की थीं। सिंदूर-वन्दन तथा लाजाहोमकी विधि सम्पन्न करके भाँवर होने लगी। फिर सिलपोहनी (अश्मारोहण) विधि की गयी। [उस समय] भगवान् की मन-मोहिनी साँवली मूर्तिने सबके मन हर लिये॥१८॥
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