गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल जानकी मंगलहनुमानप्रसाद पोद्दार
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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....
एहि बिधि भयो बिबाह उछाह तिहूँ पुर।
देहिं असीस मुनीस सुमन बरषहिं सुर॥१४५॥
मन भावत बिधि कीन्ह मुदित भामिनि भईं।
बर दुलहिनिहि लवाइ सखीं कोहबर गईं ॥१४६॥
देहिं असीस मुनीस सुमन बरषहिं सुर॥१४५॥
मन भावत बिधि कीन्ह मुदित भामिनि भईं।
बर दुलहिनिहि लवाइ सखीं कोहबर गईं ॥१४६॥
इस प्रकार विवाह-संस्कार सम्पन्न हुआ और तीनों लोकमें आनन्द छा गया। मुनीश्वर आशीर्वाद देते हैं और देवता फूल बरसाते हैं ॥१४५॥ विधाताने जो कुछ हमारे मनको प्रियं लगता था, वही कर दिया—यह सोचकर [सभी] स्त्रियाँ आनन्दित हुईं और फिर [जानकीजी] सखियाँ दूल्हा और दुलहिनको लेकर कोहबरे (कुलदेवताके स्थान)-में गयीं ॥१४६॥
निरखि निछावर करहि बसन मनि छिनु छिनु।
जाइ न बरनि बिनोद मोदमय सो दिनु॥१४७॥
सिय भ्राताके समय भोम तहँ आयउ।
दुरीदुरा करि नेगु सुनात जनायउ॥१४८॥
जाइ न बरनि बिनोद मोदमय सो दिनु॥१४७॥
सिय भ्राताके समय भोम तहँ आयउ।
दुरीदुरा करि नेगु सुनात जनायउ॥१४८॥
उन्हें निरख-निरखकर वे क्षण-क्षणमें वस्त्र और मणियाँ निछावर करती हैं। विनोद और आनन्दसे पूर्ण उस दिनका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥१४७॥ जिस समय जानकीजीके भाईकी आवश्यकता हुई, उस समय वहाँ [पृथ्वीका पुत्र] मंगलग्रह [स्वयं] आया और अपनेको छिपाकर सब रीति-रस्म करके अपना सुन्दर सम्बन्ध जनाया ॥१४८॥
चतुर नारि बर कुँवरिहि रीति सिखावहिं।
देहिं गारि लहकौरि समौ सुख पावहिं॥१४९॥
जुआ खेलावन कौतुक कीन्ह सयानिन्ह।
जीति हारि मिस देहिं गारि दुहु रानिन्ह॥१५०॥
देहिं गारि लहकौरि समौ सुख पावहिं॥१४९॥
जुआ खेलावन कौतुक कीन्ह सयानिन्ह।
जीति हारि मिस देहिं गारि दुहु रानिन्ह॥१५०॥
चतुर स्त्रियाँ वर और दुलहिनको कुलरीति सिखाती हैं और लहकौरीकी विधिके समय गाली गाकर सुख मानती हैं॥१४९॥ जुआ खेलानेमें चतुर स्त्रियोंने बड़ा कौतुक किया। वे हार-जीतका बहाना करके [कौसल्या और सुनयना] दोनों रानियोंको गाली देती थीं ॥१५०।।
सीय मातु मन मुदित उतारति आरति।
को कहि सकइ अनंद मगन भइ भारति॥१५१॥
जुबति जूथ रनिवास रहस बस एहि बिधि।
देखि देखि सिये राम सकल मंगल निधि॥१५२॥
को कहि सकइ अनंद मगन भइ भारति॥१५१॥
जुबति जूथ रनिवास रहस बस एहि बिधि।
देखि देखि सिये राम सकल मंगल निधि॥१५२॥
जानकीजीकी माता मनमें आनन्दित हो आरती उतारती हैं। उस आनन्दको कौन कह सकता है। उस समय सरस्वती भी आनन्दमग्न हो रही हैं॥१५१॥ इस प्रकार युवतियों का झुंड और [सम्पूर्ण] रनिवास समस्त मंगलोंकी खानि श्रीराम-जानकीको देख-देखकर आनन्दके वशीभूत हो रहा है॥१५२॥
दो०-मंगल निधान बिलोकि लोयन लाह लूटति नागरीं।
दइ जनक तीनिहुँ कुँवरि कुँवर बिबाहि सुनि आनँद भरीं।
कल्यान मो कल्यान पाइ बितान छबि मन मोहई।
सुरधेनु ससि सुरमनि सहित मानहुँ कलप तरु सोहई॥१९॥
दइ जनक तीनिहुँ कुँवरि कुँवर बिबाहि सुनि आनँद भरीं।
कल्यान मो कल्यान पाइ बितान छबि मन मोहई।
सुरधेनु ससि सुरमनि सहित मानहुँ कलप तरु सोहई॥१९॥
मंगलनिधि श्रीराम-जानकीजीको देखकर चतुर स्त्रियाँ नेत्रोंका लाभ लूट रही हैं। महाराज जनकने [सीताजीके सिवा अपनी और भी] तीनों कुमारियोंको (अन्य तीनों) कुमारोंके साथ ब्याह दिया। यह सुनकर सारी प्रजा आनन्दसे भर गयी। इस प्रकार मंगलमें मंगल पाकर मण्डपकी शोभा मनको मोहने लगी। तीनों जोड़ियोंके साथ वह ऐसा लगता था मानो कामधेनु, चन्द्रमा और चिन्तामणिके सहित कल्पवृक्ष सुशोभित हो ॥१९॥
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