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गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल

जानकी मंगल

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 908
आईएसबीएन :81-293-0503-8

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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....

 

जनक अनुज तनया दोउ परम मनोरम।
जेठि भरत कहँ ब्याहि रूप रति सिय सम॥१५३॥
सिय लघु भगिनि लखन कहुँ रूप उजागरि।
लखन अनुज श्रुतकीरति सबै गुन आगरि॥१५४॥

 

महाराज जनकके छोटे भाई (कुशध्वज)-की जो परम सुन्दरी कन्याएँ थीं, उनमें बड़ी (माण्डवी)-का विवाह भरतजीके साथ हुआ, जो सुन्दरतामें सैकड़ों रतियोंके समान थी॥१५३॥ जानकीजीकी छोटी बहिन (उर्मिला), लक्ष्मणजीको ब्याही गयी जो रूपके कारण अत्यन्त प्रसिद्ध थी; और लक्ष्मणजीके छोटे भाई शत्रुघ्नजीका विवाह श्रुतिकीर्तिसे हुआ, जो सब गुणोंकी खानि थी॥१५४॥

 

राम बिबाह समान बिबाह तीनिउ भए।
जीवन फल लोचन फल बिधि सब कहँ दए॥१५५॥
दाइज भयउ बिबिध बिधि जाइ ने सौ गनि।
दासी दास बाजि गज हेम बसने मनि॥१५६॥

 

श्रीरामचन्द्रजीके विवाहके समान ही [अन्य] तीनों विवाह [भी] हुए। इस प्रकार विधाताने सभीको जीवनका फल और नेत्रोंको फल दिया ॥१५५॥ दासी-दास, घोड़े-हाथी, सोना-वस्त्र और मणि इत्यादि अनेक प्रकारका दहेज दिया गया, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥१५६॥

 

दान मान परमान प्रेम पूरन किए।
समधी सहित बरात बिनय बस करि लिए॥१५७॥
गे -जनवासे राउ संगु सुत सुतबहु।
जनु पाए फल चारि सहित साधन चहु॥१५८॥

 

दान, आदर-सत्कार और परले-सिरेके प्रेमद्वारा महाराज जनकने सबको परितृप्त कर दिया और सारी बरातके सहित समधी (दशरथजी)- को विनयपूर्वक अपने वशीभूत कर लिया ॥१५७॥ फिर महाराज संगमें पुत्र और पुत्रवधुओंको लेकर जनवासेमें गये; [ऐसा लगता था] मानो उन्होंने चारों साधनोंके सहित चारों फल (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) प्राप्त कर लिये ॥१५८॥

 

चहु प्रकार जेवनार भई बहु भाँतिन्ह।
भोजन करत अवधपति सहित बरातिन्ह॥१५९॥
देहि गारि बरं नारि नाम लै दुहु दिसि।
जेंवत बढ्यो अनंद सुहावनि सो निसिं॥१६०॥

 

तरह-तरहसे (भक्ष्य, भोज्य, चोष्य, लेह्य-) चारों प्रकारका भोजन बनाया गया; बरातियोंके सहित महाराज दशरथ भोजन करने लगे ॥१५९॥ सुन्दरी स्त्रियाँ दोनों ओरके नाम ले-लेकर गालियाँ गाने लगीं, भोजन करते समय उनके हृदयमें आनन्दकी बाढ़ आ गयी; इससे वह रात्रि बड़ी ही सुहावनी जान पड़ती थी॥१६०॥

 

दो०-सो निसि सोहावनि मधुर गावति बाजने बाजहिं भले।
नृप कियो भोजन पान पाइ प्रमोद जनवासेहि चले॥
नट भाट मागध सूत जाचक जस प्रतापहि बरनहीं।
सानंद भूसुर बूंद मनि गज देत मन करषै नहीं॥२०॥

 

वह रात्रि बड़ी सुहावनी हो गयी। स्त्रियाँ मधुर गान करती थीं। अच्छे-अच्छे बाजे बज रहे थे। इस प्रकार भोजन-पानसे निवृत्त हो महाराज आनन्द प्राप्तकर जनवासेको चले। नट, भाट, मागध, सूत और याचकगण महाराजके सुयश और प्रतापका वर्णन कर रहे थे और ब्राह्मणवृन्दको आनन्दपूर्वक मणि और हाथी आदि देते-देते उनका मन हटता न था, अर्थात् बराबर देते ही रहनेकी इच्छा होती थी॥२०॥
 
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