गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल जानकी मंगलहनुमानप्रसाद पोद्दार
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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....
बरात की विदाई
करि करि बिनय कछुक दिन राखि बरातिन्ह।
जनक कीन्ह पहुनाई अगनित भाँतिन्ह॥१६१॥
प्रात बरात चलिहि सुनि भूपति भामिनि।
परि न बिरह बस नींद बीति गइ जामिनि॥१६२॥
जनक कीन्ह पहुनाई अगनित भाँतिन्ह॥१६१॥
प्रात बरात चलिहि सुनि भूपति भामिनि।
परि न बिरह बस नींद बीति गइ जामिनि॥१६२॥
महाराज जनकने विनती कर-करके कुछ दिन बरातियोंको रोककर रखा और उनकी असंख्य प्रकारसे पहुनाई की ॥१६१॥ महाराजकी रानियोंने जब सुना कि प्रात:काल बरात चली जायगी, तब भावी वियोगकी चिन्तासे उन्हें नींद न पड़ी और सारी रात बीत गयी॥१६२॥
खरभर नगर नारि नर बिधिहि मनावहिं।
बार बार ससुरारि राम जेहि आवहिं॥१६३॥
सकल चलन के साज जनक साजत भए।
भाइन्ह सहित राम तब भूप-भवन गए॥१६४॥
बार बार ससुरारि राम जेहि आवहिं॥१६३॥
सकल चलन के साज जनक साजत भए।
भाइन्ह सहित राम तब भूप-भवन गए॥१६४॥
नगरमें खलबली मच गयी, समस्त स्त्री-पुरुष विधातासे यही मनाते थे कि श्रीरामचन्द्रजी बार-बार ससुराल आया करें ॥१६३॥ महाराज जनकने बरातके चलनेका सारा साज सजाया और फिर भाइयोंके सहित श्रीरामचन्द्रजी राजमहलमें गये ॥१६४॥
सासु उतारि आरती करहिं निछावरि।
निरखि निरखि हियँ हरषहिं सूरंति साँवरि॥१६५॥
मागेउ बिदा राम तब सुनि करुना भरीं।
परिहरि सकुच सप्रेम पुलकि पायन्ह परीं ॥१६६॥
निरखि निरखि हियँ हरषहिं सूरंति साँवरि॥१६५॥
मागेउ बिदा राम तब सुनि करुना भरीं।
परिहरि सकुच सप्रेम पुलकि पायन्ह परीं ॥१६६॥
सासुएँ आरती उतारकरे निछावर करती हैं और उनकी साँवली मूर्तिको देख-देखकर हृदयमें आनन्दित होती हैं॥१६५॥ तब श्रीरामचन्द्रजीने [उन सबसे] विदा माँगी। यह सुनकर वे सब करुणा (शोक)-से भर गयीं और संकोच छोड़कर प्रेमपूर्वक उनके चरणोंपर गिर गयीं ॥१६६॥
सीय सहित सब सुता सौंप कर जोरहिं।
बार बार रघुनाथहि निरखि निहोरहिं ॥१६७॥
तात तजिय जनि छोह मया राखबि मन।
अनुचर जानब राउ सहित पुर परिजन॥१६८॥
बार बार रघुनाथहि निरखि निहोरहिं ॥१६७॥
तात तजिय जनि छोह मया राखबि मन।
अनुचर जानब राउ सहित पुर परिजन॥१६८॥
वे जानकीजीके सहित सब पुत्रियोंको (अपने-अपने पतिको) सौंपकर हाथ जोड़ती हैं और बार-बार श्रीरामचन्द्रजीको निहारकर उनसे विनय करती हैं- ॥१६७॥ हे तात! आप हमारे प्रति स्नेह न छोड़ियेगा। हृदयमें दया बनाये रखियेगा और पुर तथा पुरजनसहित महाराजको अपना अनुचर समझियेगा ।।१६८॥
दो०-जन जानि करब सनेह बलि, कहि दीन बचन सुनावहीं।
अति प्रेम बारहिं बार रानी बालिकन्हि उर लावहीं॥
सिय चलत पुरजन नारि हय गय बिहँग मृग ब्याकुल भए।
सुनि बिनय सासु प्रबोधि तंब रघुबंस मनि पितु पहिं गए॥२१॥
अति प्रेम बारहिं बार रानी बालिकन्हि उर लावहीं॥
सिय चलत पुरजन नारि हय गय बिहँग मृग ब्याकुल भए।
सुनि बिनय सासु प्रबोधि तंब रघुबंस मनि पितु पहिं गए॥२१॥
'हम आपकी बलिहारी जाती हैं, आप अपना सेवक जानकर इनपर स्नेह रखियेगा' यों कहकर रानियाँ दीन वचन सुनाती हैं और अत्यन्त प्रेमसे [चारों ब्रालिकाओंको बार-बार हृदयसे लगाती हैं। जानकीजीके चलनेपर नगरके पुरुष, स्त्रियाँ, घोड़े, हाथी, पक्षी और मृग-सभी व्याकुल हो गये। [इस प्रकार] सासुओंकी विनय सुनकर और उनको समझाकर श्रीरामचन्द्रजी पिताजीके पास गये ॥२१॥
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