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गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल

जानकी मंगल

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 908
आईएसबीएन :81-293-0503-8

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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....

 

परे निसानहि घाउ राउ अवधहिं चले।
सुर गन बरषहिं सुमन सगुन पावहिं भले॥१६९॥
जनक जानकिहि भेटि सिखाइ सिखावन।
सहित संचिव गुर बंधु चले पहुँचावन॥१७०॥

 

नगारोंपर चोट पड़ने लगी और महाराज दशरथ अयोध्याके लिये चल पड़े। देवगण फूल बरसाते हैं और अच्छे-अच्छे (शुभसूचक) सगुन होते हैं॥१६९॥ जनकजीने जानकीजीसे मिलकर उन्हें शिक्षा दी और मन्त्री, गुरु तथा भाईके सहित उन्हें पहुँचाने चले ॥१७०॥

 

प्रेम पुलकि कहि राय फिरिय अब राजन।
करत परस्पर बिनये सकल गुन भाजन ॥१७१॥
कहेउ जनक कर जोरि कीन्ह मोहि आपन।
रघुकुल तिलक सदा तुम उथपन थापन॥१७२॥

 

महाराज दशरथने प्रेमसे पुलकित होकर कहा–'राजन्! अब आप लौट जाइये।' फिर समस्त गुणोंके पात्र दोनों महाराज परस्पर विनय करने लगे ॥१७१॥ महाराज जनकने हाथ जोड़कर कहा-'आपने मुझे अपना लिया, हे रघुकुलतिलक! आप सदा ही उजड़ोंको बसानेवाले हैं' ॥१७२॥

 

बिलग न मानब मोर जो बोलि पठायउँ।
प्रभु प्रसाद जसु जानि सकल सुख पायउँ॥१७३॥
पुनि बसिष्ठ आदिक मुनि बंदि महीपति।
गहि कौसिक के पाइ कीन्ह बिनती अति ॥१७४॥

 

मैंने आपको बुला भेजा-'मेरे इस व्यवहारसे बुरा न मानियेगा। प्रभु (आप)-की [ही] कृपासे आपका सुयश जानकर मैंने सब प्रकारका सुख पाया है' ॥१७३॥ फिर महाराजने वसिष्ठ आदि मुनियोंकी वन्दना करके श्रीविश्वामित्रजीके चरण पकड़कर अत्यन्त विनती की ॥१७४॥

 

ाइन्ह सहित बहोरि बिनय रघुबीरहि।
गदगद कंठ नयन जल उर धरि धीरहि॥१७५॥
कृपा सिंधु सुख सिंधु सुजान सिरोमनि।
तात समय सुधि करबि छोह छोड़ब जनि॥१७६॥

 

महाराज जनक फिर भाइयोंके साथ श्रीरामचन्द्रजीसे विनय करने लगे। आनन्दसे उनका कण्ठ भर आया, नेत्रों में जल उमड़ आया और हृदयमें धीरज धरकर कहने लगे, हे कृपासिन्धु, हे सुखसागर, हे सुजानशिरोमणि, हे तात! समय-समयपर आप हमारी याद करते रहियेगा। [हमारे प्रति] स्नेह न त्यागियेगा' ॥१७५-१७६॥

 

दो०-जनि छोह छोड़ब बिनय सुनि रघुबीर बहु बिनती करी।
मिलि भेटि सहित सनेह फिरेउ बिदेह मन धीरज धरी॥
सो समौ कहत ने बनते कछु सबै भुवन भरि करुना रहे।
तब कीन्ह कोसलपति पयान निसान बाजे गहगहे॥२२॥

 

स्नेह न छोड़ियेगा'-इस विनयको सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने बहुत विनती की और महाराज जनक [सबसे] प्रेमसहित मिल-भेंटकर तथा मनमें धीरज धारणकर लौट आये। उस अवसरके विषयमें कुछ कहते-नहीं बनता; सम्पूर्ण लोक करुणा (शोक)-से भर गये। तब कोसलपति महाराज दशरथने प्रस्थान किया और आनन्दपूर्वक नगारे बजने लगे॥२२॥

 

पंथ मिले भृगुनाथ हाथ फरसा लिए।
डाटहिं आँखि देखाइ कोप दारुन किए॥१७७॥
राम कीन्ह परितोष रोष रिस परिहरि।
चले सौंप सारंग सुफल लोचन करि॥१७८॥

 

मार्गमें भृगुनाथ (परशुरामजी) हाथमें फरसा लिये मिले। वे आँख दिखाकर तीव्र क्रोधकी मुद्रा धारण किये डाँटने लगे ॥ १७७॥ किंतु श्रीरामचन्द्रजीने परशुरामजीको संतुष्ट किया और वे रोष एवं अमर्षको त्यागकर भगवान्को धनुष सौंप अपने नेत्रोंको सुफल करके चले गये।।१७८॥

 

रघुबर भुज बल देखि उछाह बरातिन्ह।
मुदित राउ लखि सनमुख बिधि सब भाँतिन्ह॥१७९॥

 

श्रीरामचन्द्रजीके बाहुबलको देखकर बरातियोंको बड़ा हर्ष हुआ और विधाताको सब प्रकार सम्मुख अर्थात् अनुकूल जानकर महाराज दशरथ प्रसन्न हुए॥१७९॥
 
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