गीता प्रेस, गोरखपुर >> जानकी मंगल जानकी मंगलहनुमानप्रसाद पोद्दार
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जानकी मंगल सरल भावार्थ सहित....
अयोध्या में आनन्द
एहि बिधि ब्याहि सकल सुत जग जसु छायउ।
मग लोगन्हि सुख देत अवधपति आयउ॥१८०॥
मग लोगन्हि सुख देत अवधपति आयउ॥१८०॥
इस प्रकार सब पुत्रोंका ब्याह करके उन्होंने समस्त संसारमें अपने सुयशका विस्तार किया और [फिर] रास्तेमें लोगोंको सुख देते हुए अवधपति दशरथजी [अपनी राजधानीको] लौट आये॥१८०॥
होहिं सुमंगल सगुन सुमन सुर बरषहिं।
नगर कोलाहले भयउ नारि नर हरषहिं॥१८१॥
घाट बाट पुर द्वार बजार बनावहिं।
बीथीं सींचि सुगंध सुमंगल गावहिं॥१८२॥
नगर कोलाहले भयउ नारि नर हरषहिं॥१८१॥
घाट बाट पुर द्वार बजार बनावहिं।
बीथीं सींचि सुगंध सुमंगल गावहिं॥१८२॥
सुन्दर मंगलमय शकुन हो रहे हैं, देवता फूल बरसाते हैं। नगरमें
कोलाहल हो गया, समस्त स्त्री-पुरुष आनन्दित हो रहे हैं॥१८१॥ वे घाट, बाट, पुर, द्वार और बाजारोंको सुसज्जित करते हैं और गलियोंको सुगन्धसे सींचकर सुमंगल गाते हैं॥१८२॥
कोलाहल हो गया, समस्त स्त्री-पुरुष आनन्दित हो रहे हैं॥१८१॥ वे घाट, बाट, पुर, द्वार और बाजारोंको सुसज्जित करते हैं और गलियोंको सुगन्धसे सींचकर सुमंगल गाते हैं॥१८२॥
चौकै पूरै चारु कलस ध्वज साजहिं।
बिबिध प्रकार गहागह बाजन बाजहि ॥१८३॥
बंदनवार बितान पताका घरे घर।
रोपे सफल सपल्लव मंगल तरुबर॥१८४॥
बिबिध प्रकार गहागह बाजन बाजहि ॥१८३॥
बंदनवार बितान पताका घरे घर।
रोपे सफल सपल्लव मंगल तरुबर॥१८४॥
सुन्दर चौक पूरकर कलश और ध्वजाएँ सजाते हैं। अनेक प्रकारके आनन्दमय बाजे बज रहे हैं॥१८३॥ घर-घरमें वन्दनवार, पताका और - चँदोवे विराजमान हैं तथा फल और पल्लवोंके सहित मंगलमय वृक्ष लगाये गये हैं॥१८४॥
दो०-मंगल बिटप मंजुल बिपुल दधि दूब अच्छत रोचना।
भरि थार आरति सजहिं सब सारंग सावक लोचना॥
मन मुदित कौसल्या सुमित्रा सकल भूपति-भामिनी।
सजि साजु परिछन चलीं रामहि मत्त कुंजर गामिनी॥२३॥
भरि थार आरति सजहिं सब सारंग सावक लोचना॥
मन मुदित कौसल्या सुमित्रा सकल भूपति-भामिनी।
सजि साजु परिछन चलीं रामहि मत्त कुंजर गामिनी॥२३॥
बहुत-से सुन्दर मंगलमय वृक्ष लगाये गये हैं, मृगशावकके-से नेत्रोंवाली समस्त स्त्रियाँ थालोंमें दही, दूब, अक्षत और गोरोचन भरकर आरती सजाती हैं तथा कौसल्या, सुमित्रा आदि सम्पूर्ण राजमहिषियाँ मनमें अत्यन्त आनन्दित हैं। मतवाले हाथियोंकी-सी चालसे चलनेवाली वे महारानियाँ सब सामग्री सजाकर श्रीरामचन्द्रजीको परिछन करने चलीं ॥२३॥
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