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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवन्नाम

भगवन्नाम

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 914
आईएसबीएन :81-293-0777-4

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प्रस्तुत पुस्तक में भगवान के नाम की महिमा का वर्णन किया गया है।

श्रीकृष्णके भक्त हों तो उनके चरणोंकी शरण होकर, ‘श्रीकृष्णः शरणं मम' इस मन्त्रको जपते हुए साथ-साथ स्वरूपको याद करते जाओ। नाम-जपकी यह खास विधि है। एक विधि तो उसके होकर नाम जपना और दूसरी विधि-नाम जपते हुए उसके स्वरूपका ध्यान करते रहना। कहीं भूल होते ही ‘हे नाथ ! हे नाथ !!' पुकारो। 'हे प्रभो!

बचाओ, मैं तो भूल गया। मेरा मन और जगह चला गया, हे नाथ ! बचाओ।' भगवान्से ऐसी प्रार्थना करो तो भगवान् मदद करेंगे। उनकी मददसे जो काम होगा, वह काम आप अपनी शक्तिसे कर नहीं सकोगे। इस वास्ते भगवान्के नामका जप और उनके स्वरूपका ध्यान-ये दोनों साथमें रहें।

‘ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन्।'
(गीता ८।१३)

'ॐ' इस एक अक्षरका उच्चारण करे और मेरा स्मरण करे। यह जगह-जगह बात आती है। इस वास्ते भगवान्के नाम-जपके साथ भगवान्के स्वरूपकी भी याद रहे।

नाम-जप दिखावटीपनमें न चला जाय अर्थात् मैं नाम जपता हूँ तो लोग मेरेको भक्त मानें, अच्छा मानें, लोग मेरेको देखें-यह भाव बिलकुल नहीं होना चाहिये। यह भाव होगा तो नामकी बिक्री हो जायगी। नामका पूरा फल नहीं मिलेगा; क्योंकि आपने नामको मान-बड़ाईमें खर्च कर दिया। इस वास्ते दिखावटीपन नहीं होना चाहिये नाम-जपमें। नाम-जप भीतरसे होना चाहिये—लगनपूर्वक। लौकिक धनको भी लोग दिखाते नहीं। उसको भी तिजोरीमें बंद रखते हैं, तो लौकिक धन-जैसा भी यह धन नहीं है क्या ? जो लोगोंको दिखाया जाय। लोगोंको पता लगे तो क्या भजन किया ? गुप्तरीतिसे करे, दिखावटीपन बिलकुल न आवे। नाम-जप भीतर-ही-भीतर करते रहें। एकान्तमें करते रहें, मन-ही-मन करते रहें और मन-ही-मनसे पुकारें, लोगोंको दिखानेके लिये नहीं। लोग देख लें तो उसमें शर्म आनी चाहिये कि मेरी गलती हो गयी। लोगोंको पता लग गया। हमें एक महात्मा मिले थे। उन्होंने एक बात कही।

प्रह्लादजीको इतना कष्ट क्यों पाना पड़ा ? प्रह्लादजीने अपना भजन प्रकट कर दिया। अगर वे प्रकट न करते तो उनको इतना कष्ट क्यों पाना पड़ता ? इस वास्ते अपना भजन प्रकट न करें। किसीको पता ही न होने दें कि यह भगवान्का भजन करता है। बहनों-माताओंको चाहिये कि वे ऐसी गुप्तरीतिसे भगवान्के भजनमें लग जायें। देखो, गुप्तरीतिसे किया हुआ भजन बड़े महत्त्वका होता है। पाप भी गुप्त किये हुए बड़े भयंकर होते हैं। भजन भी बड़ा लाभदायक होता है। गुप्त दिया हुआ दान भी बड़ा लाभदायक है। गुप्त दान कौन-सा है ? घरवालोंसे छिपाकर देना चोरी है, गुप्त दान नहीं है। गुप्त दान कौन-सा है? जिसके घरमें चला जाय, उसे पता नहीं चले कि कहाँसे आया है ? किसने दिया है ? देनेवालेका पता न लगे, यह गुप्त दान होता है। घरवालोंसे छिपाकर देना चोरी है। चोरीका पाप होता है।

एक बार सुबहके प्रवचनमें मैंने कह दिया कि गरीबोंकी सेवा करो। तो एक भाई बोले—गरीबोंकी सेवा करते हैं तो गरीब तंग कर देते हैं महाराज ! तो मैंने कहा-सेवा इस ढंगसे करो कि उन्हें मालूम न हो कि किसने सेवा की। वह तो आपकी सेवा है, नहीं तो लोगों में झंडा फहराते हैं कि हम देते हैं, देते हैं। भीड़ बहुत हो जायगी, लोग लूट लेते हैं, तंग करते हैं। यह सेवाका भाव नहीं है। केवल वाह-वाह लेनी है। और कुछ नहीं है।

भीतरका भाव हो जाय कि इनके घर कैसे चीज पहुँचे ? किस तरहसे इनकी सहायता हो जाय। कैसे गुप्त दिया जाय, तो उस दानका माहात्म्य है। ऐसे ही गुप्तरीतिसे भजन हो। भगवान्के नामका जप भीतर-ही-भीतर हो। नामजप भीतरसे नहीं होता है तो बोलकर करो, कोई परवाह नहीं; पर भाव दिखावटीपनका नहीं होना चाहिये। कोई देख भी ले, तो वह इतना दोष नहीं है, प्रत्युत दिखावेका भाव महान् दोष है। आप नित्य-निरन्तर भजनमें लग जाओ। कहीं कोई देख भी ले तो सावधान हो जाओ। उसके लिये यह नहीं कि हमारी भजन ही बंद हो जाय।

(१) भगवान्के होकर भजन करें, (२) भगवान्का ध्यान करते हुए भजन करें, (३) गुप्तरीतिसे करें, (४) निरन्तर करें, क्योंकि बीचमें छूटनेसे भजन इतना बढ़िया नहीं होता । निरन्तर करनेसे एक शक्ति पैदा होती है। जैसे, बहनें-माताएँ रसोई बनाती हैं? तो रसोई बनावें तो दस-पंद्रह मिनट बनाकर छोड़ दें, फिर घंटाभर बादमें शुरू करें। फिर थोड़ी देर बनावें, फिर घंटाभर ठहरकर करने लगे। इस प्रकार करनेसे क्या रसोई बन जायगी ? दिन बीत जायगा, पर रसोई नहीं बनेगी। लगातार किया जाय तो चट बन जायगी। ऐसे ही भगवान्का भजन लगातार हो, निरन्तर हो, छूटे नहीं, रात-दिन, सुबह-शाम कभी भी छूटे नहीं। नारदजी महाराज भक्ति-सूत्रमें लिखते हैं-‘तदर्पिताखिलाचारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति' सब कुछ भगवान्के अर्पण कर दे, भगवान्को भूलते ही परम व्याकुल हो जाय। जैसे मछलीको जलसे बाहर कर दिया जाय तो वह तड़फड़ाने लगती है। इस तरहसे भगवान्की विस्मृतिमें हृदयमें व्याकुलता हो जाय। भगवान्को भूल गये, गजब हो गया ! उसकी विस्मृति न हो। लगातार उसकी स्मृति रहे और प्रार्थना करे–'हे भगवान् ! मैं भूलू नहीं, हे ! नाथ ! मैं भूलू नहीं।' ऐसा कहता रहे और निरन्तर नाम-जप करता रहे।

(५) इसमें एक बात और खास है-कामना न करे अर्थात् मैं माला फेरता हूँ, मेरी छोरीका ब्याह हो जाय। मैं नाम जपता हूँ तो धन हो जाय, मेरे व्यापारमें नफा हो जाय। ऐसी कोई-सी भी कामना न करे। यह जो संसारकी चीजोंकी कामना करना है यह तो भगवान्के नामकी बिक्री करना है। इससे भगवान्का नाम पुष्ट नहीं होता, उसमें शक्ति नहीं आती। आप खर्च करते रहते हो, मानो हीरोंको पत्थरोंसे तौलते हो ! भगवान्का नाम कहेंगे तो धन-संग्रह हो जायगा। नहीं होगा तो क्या हो जायगा ? मेरे पोता हो जाय। अब पोता हो जाय। अब पोता हो गया तो क्या ? नहीं हो गया तो क्या ? एक विष्ठा पैदा करनेकी मशीन पैदा हो गयी, तो क्या हो गया? नहीं हो जाय तो कौन-सी कमी रह गयी ? वह भी मरेगा, तुम भी मरोगे ! और क्या होगा ? पर इनके लिये भगवान्के नामकी बिक्री कर देना बहुत बड़ी भूल है। इस वास्ते ऐसी तुच्छ चीजोंके लिये, जिसकी असीम, अपार कीमत है, उस भगवन्नामकी बिक्री न करें, सौदा न करें और कामना न करें। नाम महाराजसे तो भगवान्की भक्ति मिले, भगवान्के चरणों में प्रेम हो जाय, भगवान्की तरफ खिंच जायें यह माँगो। यह कामना नहीं है; क्योंकि कामना तो लेनेकी होती है और इसमें तो अपने-आपको भगवान्को देना है। आपका प्रेम मिले, आपकी भक्ति मिले, मैं भूलूं ही नहीं-ऐसी कामना खूब करो।

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