श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 64
मेरे अप्राप्य,
रात भर न जाने किस देश में, कहीं-किन्ही कल्पनातीत सपनों में डूबती-उतरती रही हूँ...। कभी लगा एक तालाब का सतही पानी है, जिस पर निःशब्द-बिना हाथ-पाँव मारे तैर रही हूँ। कभी लगा उस तालाब में लहरे-हिलोरे लेकर मुझे ऊपर-नीचे उछालकर डरा रहीं है। कभी किनारे पर होती हूँ तो कभी तल के बीचो-बीच। तब लगा-कहीं ऐसी जगह हूँ जहाँ आसपास मखमली कोमलता ही कोमलता बिखरी हुई है। तुमने शायद-कहीं मेरे द्वार पर दस्तक दी है। मैंने आँखें उठाकर विस्मय से तुम्हें देखा भर-बस...।
नहीं जानती मेरे द्वार तक आया वह स्वप्न क्या हो-सकता है-कुछ निश्चित नहीं कर पा रही हूँ...। लगता है जैसे हवा का उड़ता आँचल पकड़ना चाहती हूं...पर दूसरी ओर वह हवा के झोंके से-हाथ से फिसल कर कहीं ओर उलझ रहा है...।
फिर अचानक लगा-जैसे तुम आगे बढ़े-मुझे पुकारते हुए...। मैं पँख लगाकर उड़ने लगी-पर तुम मुझसे बहुत आगे उड़ रहे थे। मैं भी होड़ लगा रही हूँ-तुम्हें पकड़ने की-पर तुम हाथ के इंगित से मुझे लौटने का संकेत दे रहे हो-जैसे कह रहे हो-मुझे अनन्त क्षितिज के पार-बहुत ऊँचे तक जाना है।
तब मैं तुम्हें अनन्त पथ की ओर जाते देखती रही। बादल...और बादल...फिर तुम अदृश्य हो गये। बादलों के अंधेरे में-मैं राह भटक गई। और फिर देखा-उसी तालाब की सतह पर पहुँच गई हूँ। किनारा नहीं मिल रहा है। जोर से हवा में हाथ मारती हूँ घुमाकर-कि नींद खुल जाती है। सारा शरीर झनझना रहा है और माथा स्वेद कणों से तर-बतर हो गया है।
तब से मन एक अनजाने भय से भर गया है। हर क्षण मन डरा-डरा-सा रहने लगा है। उसी भयभीत मन से तुम्हारे लिये प्रार्थना कर रही हूँ-।
- तुम्हारी...
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